ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः ।। 38 ।।

 

शब्दार्थ :- ब्रह्मचर्य- प्रतिष्ठायां ( ब्रह्मचर्य के पूर्ण रूप से सिद्ध होने पर ) वीर्यलाभः ( सामर्थ्य अर्थात बल की प्राप्ति होती है । )

 

सूत्रार्थ :- ब्रह्मचर्य व्रत का पूरी तरह से पालन करने से साधक को अनन्त सामर्थ्य अर्थात शारीरिक व मानसिक बल की प्राप्ति होती है ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में ब्रह्मचर्य की सिद्धि का फल बताया गया है ।

ब्रह्मचर्य का अर्थ है ईश्वर का चिन्तन और वीर्य का रक्षण करना ।

जो साधक अपनी साधना में ईश्वर का चिन्तन व वीर्य का रक्षण अर्थात रक्षा पूरे मन, वचन व कर्म से करते हैं । उनको अनन्त शारीरिक, मानसिक व बौद्विक बल की प्राप्ति होती है । और इस प्रकार ब्रह्मचर्य की शक्ति से साधक अपने सामर्थ्य को बढ़ाता है । उसके बाद वह अपने शिष्यों में भी ज्ञान को बढ़ाने में समर्थ होता है ।

 

ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने से साधक को उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है । और वह दीर्घायु को प्राप्त होता है । ब्रह्मचर्य को स्वस्थ जीवन का आधार बताया गया है ।

वीर्य की रक्षा करने से साधक अपनी शारीरिक, मानसिक व बौद्विक शक्तियों को इतना बढ़ा लेता है कि कोई सामान्य व्यक्ति उसकी बराबरी नहीं कर पाता है ।

 

ब्रह्मचर्य का बल अपार होता है । जितना आनन्द वीर्य को व्यर्थ करने में आता है । उससे कई सौ गुना आनन्द उसके रक्षण करने में आता है । केवल थोड़े से क्षाणिक सुख के लिए हम अपने महान बल को बर्बाद कर देते हैं । बिना वीर्य की रक्षा के कोई भी साधक साधना में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता ।

 

अथर्ववेद में ब्रह्मचर्य के विषय में कहा गया है कि “ब्रह्मचर्य के तप से साधक मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर लेता है” * ।

 

* ।। अथर्ववेद 11/5/19 ।।

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  1. ॐ गुरुदेव*
    ब्रम्हचर्य की महिमा अपरम्पार है।
    अति सुन्दर व्याख्या।

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