अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नो पस्थानम् ।। 37 ।।

 

शब्दार्थ :- अस्तेय- प्रतिष्ठायां ( चोरी के भाव का पूरी तरह से अभाव होने पर अर्थात चोरी के भाव से पूरी तरह से मुक्ति प्राप्त होने पर ) सर्वरत्नो- पस्थानम् ( सभी प्रकार के उत्तम से उत्तम रत्न अर्थात पदार्थ प्रकट होते हैं । )

 

सूत्रार्थ :- चोरी के भाव का पूरी तरह से अभाव होने पर साधक को सभी प्रकार के बढ़िया से बढ़िया पदार्थों की प्राप्ति होती है ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में अस्तेय के फल का वर्णन किया गया है ।

अस्तेय का अर्थ है किसी भी वस्तु या पदार्थ को उसके मालिक की अनुमति के बिना न लेना । अर्थात किसी भी वस्तु को चोरी न करने का भाव होना ।

जब साधक पूरे मन, वचन व कर्म के भाव के साथ अस्तेय का पालन करता है, तो उसके पास किसी भी प्रकार की वस्तु या पदार्थ का अभाव नहीं रहता । उसे प्रत्येक वह वस्तु प्राप्त हो जाती है जिसकी उसे आवश्यकता होती है ।

चोरी न करने वाला व्यक्ति मेहनती होता है । वह कर्मयोगी होता है । प्रत्येक कार्य को वह पूरी ईमानदारी से करता है । और जब भी कोई व्यक्ति किसी कार्य को पूरी ईमानदारी के साथ करता है, तो उसे उनमे सिद्धि प्राप्त होती है । इस प्रकार कर्म करके मेहनत से कुछ कमाने में जिसका पूरा विश्वास है । उसे कभी भी किसी वस्तु या पदार्थ का अभाव नहीं रहता ।

मेहनती को इस पृथ्वी के उत्तम से उत्तम पदार्थों की प्राप्ति होती है । वह सदा समाज में प्रतिष्ठा को प्राप्त करते हैं । और एक सम्पन्न जीवन जीते हैं ।

 

इसके विपरीत जो व्यक्ति चोरी करते हैं वह समाज में तिरस्कार को प्राप्त करते हैं । उनकी समाज में इज्जत नहीं होती है । और वह सदा अभाव का जीवन जीते हैं । क्योंकि चोरी से कभी भी स्थायी तरक्की नहीं की जा सकती है । इसलिए वह सदा अभाव में रहते हैं ।

 

उदाहरण स्वरूप :- इस उदाहरण में मैं आपको चोरों के विषय में एक बहुत पुरानी कहानी को आप सभी को बताना चाहता हूँ ।

 

एक बार एक राज्य में बहुत बड़े स्तर पर अन्न व धन का अभाव ( कमी ) हो जाता है । इस अभाव से त्रस्त होकर राजा ने एक यज्ञ का आयोजन करवाया । जिसमें बड़े- बड़े विद्वान आचार्यों को बुलाया गया । यज्ञ के प्रारम्भ होने से पूर्व राजा ने अपनी परेशानी आचार्यों के सामने रखी । तब आचार्यों ने कहा कि हे राजन! जब तक तुम्हारे राज्य में लोग चोरी के भाव का त्याग नहीं करेंगें, तब तक यह अभाव की स्थिति ऐसे ही बनी रहेगी । इसके लिए पूरे राज्य के लोग यदि चोरी न करने का संकल्प लेकर यज्ञ में आहुति डालते हैं, तो इसका समाधान हो सकता है । राजा व प्रजा सभी ने संकल्प लेकर यज्ञ में आहुति डाल दी । इसके बाद आचार्यों ने कहा कि इस यज्ञ की बची हुई आहुति को एक बक्से में बंद करके राज्य की सीमा से बाहर छोड़ आओ । यज्ञ के बाद ऐसा ही किया गया ।

उस बक्से को राज्य की सीमा से बाहर एक नदी के किनारे छोड़ दिया गया । तभी वहाँ पर कुछ चोर आए और उन्होंने देखा कि एक बहुत बड़ा बक्सा नदी किनारे पड़ा हुआ है । क्यों न इसको चुरा लिया जाए ? सभी चोरों ने सहमति जताकर उस बक्से को वहाँ से उठा लिया और उसे लेकर जंगल में चले गए । उन्होंने बड़ी उत्सुकता से उस बक्से को खोला । बक्सा खुलते ही उसमे से वह अभाव बाहर निकला तो सभी चोरों ने पूछा कि आप कौन हो ? तब उस अभाव ने कहा कि मैं अभाव हूँ । चोरों ने सोचा कि बिना मेहनत के जो भी मिल जाए उसमें क्या बुराई है । और यह कहते हुए उन्होंने उस अभाव को अपने पास रख लिया । तभी से सभी चोरों के पास वह अभाव स्थायी रूप से रहता है ।

 

अतः चोरी करने से सदा अभाव की स्थिति व चोरी न करने से सदा सम्पन्नता की स्थिति बनती है ।

इसलिए महर्षि पतंजलि ने चोरी के भाव से मुक्त होने पर सभी उत्तम से उत्तम पदार्थों की प्राप्ति की बात कही है ।

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  1. ॐ गुरुदेव*
    उदाहरण सहित कितनी सुंदर व्याख्या की है आपने।
    सत्य है कि यदि कोई व्यक्ति चोरी करता रहता है तो उसके जीवन में हमेशा अभाव ही बना रहता है , इसके विपरीत यदि वह इस भावना को त्याग दे तो उसके पास समस्त प्रकार के वैभव स्वत: उत्पन्न हो जाते हैं।

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