शौचसन्तोषतप: स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि नियमा: ।। 32 ।।

  

शब्दार्थ :- शौच ( शुद्धि ) सन्तोष ( मेहनत से जो मिले, उसी में सब्र करना ) तप: ( द्वंद्वों को सहना ) स्वाध्याय ( मोक्षकारक ग्रन्थों का अध्ययन ) ईश्वर प्रणिधान ( समस्त कर्मों को भगवान को समर्पित कर देना )

 

सूत्रार्थ :- शारीरिक व मानसिक शुद्धि, जो पुरुषार्थ के बाद मिले, उसमें सब्र करना, गर्मी- सर्दी आदि द्वंद्वों को सहना, मोक्षकारक ग्रन्थों का अध्ययन करना, व अपने सभी कर्मों का भगवान में अर्पण कर देना । यह सभी पाँच नियम कहे गए हैं ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में अष्टांग योग के दूसरे अंग अर्थात नियम की चर्चा की गई है । यम की तरह ही नियम के भी पाँच भाग होते हैं । जिनका वर्णन इस प्रकार है –

 

  1. शौच :- शौच मुख्य रूप से दो प्रकार होती है । एक बाह्य और दूसरी आन्तरिक ।

 

बाह्य शुद्धि :- बाह्य शौच में शरीर व भोजन आदि की पवित्रता को रखा गया है । हमें प्रतिदिन शुद्ध जल व मिट्टी आदि से शरीर के सभी अंगों की शुद्धि करनी चाहिए । साथ ही हमें प्रतिदिन शुद्ध, सात्त्विक व पवित्र भोजन ही ग्रहण करना चाहिए । यह सब बाह्य शुद्धि के साधन कहे जाते हैं ।

 

आन्तरिक शुद्धि :- आन्तरिक शुद्धि का अर्थ है अपने भीतर की शुद्धि करना । जब हमारे चित्त में मलिनता आ जाती है, तो हम योग मार्ग से दूर हो जाते हैं । इसलिए योग मार्ग में अग्रसर होने के लिए हमें सर्वप्रथम अपने चित्त को शुद्ध एवं पवित्र बनाना पड़ेगा । इस प्रकार चित्त के मलों को साफ करने के लिए आन्तरिक शुद्धि की आवश्यकता होती है । अविद्या आदि क्लेशों, काम, क्रोध, मोह, लोभ व अहंकार आदि का त्याग करने से हमारी आन्तरिक शुद्धि होती है ।

 

  1. सन्तोष :- सन्तोष को सबसे बड़ा सुख कहा गया है । घनघोर पुरुषार्थ ( सम्पूर्ण प्रयास ) करने के बाद जो फल मिले उसमें संतुष्टि ( सब्र ) रखना ही सन्तोष कहलाता है । कुछ लोगों का मानना है कि जो भी मिले, जितना भी मिले उसी में सब्र करना चाहिए । ज्यादा के लिए प्रयास नहीं करना चाहिए । यही सन्तोष है । लेकिन यह सोचना कर्म सिद्धान्त के विरुद्ध है । इससे तो लोगों में अकर्मण्यता ( काम से जी चुराना ) का भाव पैदा हो जाएगा । कोई कुछ करेगा ही नहीं । इसलिए यह मानना बिल्कुल गलत है । काम करने में पूरा पुरुषार्थ होना चाहिए । हाँ उससे मिलने वाले फल में संतुष्टि होना सन्तोष होता है ।

 

  1. तप :- सभी अनुकूल व प्रतिकूल ( अच्छी व बुरी ) अवस्थाओं में स्वयं को सम अर्थात एक समान भाव में रखना ही तप कहलाता है । जैसे- सुख- दुःख, मान- अपमान, लाभ- हानि, सर्दी- गर्मी, जय- पराजय व भूख- प्यास आदि ।

 

तप के विषय में भी कुछ लोगों को भ्रान्ति है । उनका मानना है कि अपने शरीर को ज्यादा से ज्यादा कष्ट देना ही तप होता है । इस तरह के तप को शास्त्रों में तामसिक तप कहा है । जैसे- अपने चारों ओर अग्नि जलाकर तपना, जल में एक पैर पर खड़े रहना, महीनों तक भूखे रहना, मिट्टी का खड्डा खोदकर उसमें समाधि लगाना, नंगे पैर रहना, कई रातों तक न सोना, भूमि पर पैर न रखना आदि ।

 

तप का वास्तविक स्वरूप तो सभी द्वन्द्वों को शान्त चित्त से सहन करना होता है । अर्थात सुख में इतराना नहीं चाहिए और दुःख में तनाव नहीं लेना चाहिए । अपने शरीर को सर्दी और गर्मी दोनों को सहने लायक बनाना । जीत और हार दोनों को समान भाव से स्वीकार करना ही तप होता है ।

 

  1. स्वाध्याय :- स्वाध्याय का अर्थ है मोक्षकारक ग्रन्थों का अध्ययन करना व ईश्वर के प्रणव आदि नामों का जप करना । वेद व वेदों के अनुकूल अर्थात वेदों पर आधारित शास्त्रों व ग्रन्थों का ही अध्ययन हमें करना चाहिए । जैसे- वेद, उपनिषद, आस्तिक दर्शन व गीता आदि ।

 

  1. ईश्वर प्रणिधान :- बिना किसी लौकिक फल की इच्छा के अपने सभी कर्मों को ईश्वर में समर्पित कर देना ईश्वर प्रणिधान कहलाता है ।

ईश्वर ही हम सबका पालन करने वाला है । ईश्वर को ही सर्वे- सर्वा मानकर अपने सभी अच्छे व बुरे कर्मों का उसमें समर्पण करना चाहिए । और इसके पीछे किसी तरह के फल की इच्छा नहीं होनी चाहिए । निःस्वार्थ भाव से ईश्वर समर्पण होना ही ईश्वर प्रणिधान है ।

 

इस प्रकार नियम का स्वरूप कहा गया है ।

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  1. ॐ गुरुदेव*
    बहुत सुंदर व्याख्या ।

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