तदभावात्संयोगाभावो हानं तद् दृशे: कैवल्यम् ।। 25 ।।

 

शब्दार्थ :- तद्, ( उस अविद्या का ) अभावत्, ( अभाव होने से ) संयोग, ( उस दृश्य व दृष्टा के संयोग का भी ) आभव:, ( अभाव हो जाता है ) हानं,

( दुःख से निवृत्ति या दुःख का अभाव ) तत्, ( वही ) दृशे:, ( दृष्टा या आत्मा का ) कैवल्यम्, ( कैवल्य अर्थात समाधि या मोक्ष है । )

 

सूत्रार्थ :- उस अविद्या का अभाव होने से उस दृष्टा ( पुरुष ) व दृश्य ( प्रकृत्ति ) के संयोग का भी अभाव हो जाता है । इस अभाव को ही हान अर्थात दुःखों से मुक्ति कहा है । दुःखों से मुक्त होना ही आत्मा का कैवल्य अर्थात मोक्ष माना जाता है ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में कैवल्य के  स्वरूप को बताया है । अविद्या को सभी कलेशों अर्थात कष्टों की जननी बताया है । जब साधक में उस अविद्या का अभाव हो जाता है । तब उस अविद्या का अभाव होने से दृष्टा ( पुरूष ) व दृश्य ( प्रकृत्ति ) के संयोग का भी अभाव हो जाता है । इस प्रकार दृष्टा व दृश्य के संयोग का अभाव ही हान कहलाता है ।

 

हान का अर्थ है दुःखों से पूर्ण रूप से मुक्ति मिलना । हान दुःख के अभाव की अवस्था होता है । अर्थात ऐसी अवस्था जिसमें कोई दुःख या तकलीफ न हो । जहाँ केवल सुख ही सुख हो वह हान कहलाता है । यह हान ही उस पुरूष या आत्मा का मोक्ष होता है ।

 

यहाँ पर हान को कैवल्य कहा है । कैवल्य का अर्थ भी वही होता है जिसमें जीवात्मा सभी दुःखों से छूटकर पूर्ण सुख को प्राप्त कर लेता है । इसी को मोक्ष या मुक्ति कहा है ।

 

अविद्या रूपी अज्ञान के कारण ही प्रकृत्ति व पुरूष का संयोग होता है । लेकिन जब किसी समस्या के कारण का ही निवारण कर दिया जाता है, तो वह समस्या स्वयं ही समाप्त हो जाती है । इसलिए पहले सभी क्लेशों ( कष्टों ) की जननी अविद्या का नाश होने से प्रकृत्ति व पुरूष का संयोग भी अपने आप ही समाप्त हो जाता है ।

 

इसमें प्रकृत्ति व पुरूष के संयोग का कारण अविद्या मानी है । जैसे ही उस कारण अर्थात अविद्या की समाप्ति होती है वैसे ही प्रकृत्ति व पुरूष के संयोग की भी समाप्ति हो जाती है ।

 

इसी प्रकार उस हान ( दुःख के अभाव )  का कारण प्रकृत्ति व पुरूष के संयोग का अभाव होता है । जैसे ही इन दोनों के संयोग का अभाव होता है वैसे ही हान की उत्पत्ति होती है ।

 

यहाँ पर सांख्य दर्शन के उस सिद्धान्त का पालन हो रहा है । जिसमें बताया गया है कि कार्य की उत्पत्ति कारण में विद्यमान होती है । जैसे ही कारण समाप्त होता है वैसे ही कार्य भी समाप्त हो जाता है ।

 

उदाहरण स्वरूप :- जब हम गर्मी के मौसम में बाहर से आते हैं, तो उस समय हमें बहुत ज्यादा गर्मी लग रही होती है । लेकिन जैसे ही हम घर के अन्दर आकर ए०सी चलाते हैं, तो कुछ ही समय में हमें गर्मी लगना बन्द हो जाती है । ऐसा क्यों ? इसका उत्तर है कि बाहर तापमान ज्यादा होने से हमें गर्मी लग रही थी । और अन्दर आते ही हमनें ए०सी चलाकर उस तापमान को कम कर दिया । जिसके कारण अब गर्मी नहीं लग रही । इससे यह साबित होता है कि जैसे ही समस्या के कारण का निवारण होता है वैसे ही समस्या का भी निवारण हो जाता है ।

 

अतः अविद्या जो सभी दुःखों का कारण है उसका अभाव होते ही सभी दुःखों का भी अभाव अपने आप ही हो जाता है । और आत्मा कैवल्य को प्राप्त हो जाता है ।

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  1. प्रणाम आचार्य जी! वाह !यह बहुत ही सुंदर सूत्र है और इसका वण॔न आपने बहुत ही सुन्दरता के साथ समझ आ जाने वाले शब्दो मे किया! आचार्य जी वो सुन्दर व सटिक शब्द मुझे नही पता जिससे धन्यवाद किया जाय! बहुत पुण्य कम॔ होगे जो आप हमे गुरु रूप मे मिले है ! ओ3म्

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