कृतर्थं प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात् ।। 22 ।।
शब्दार्थ :- कृतार्थं, ( मुक्ति अथवा मोक्ष प्राप्त कर चुका पुरूष ) प्रति, ( के लिए ) नष्टम्, ( नष्ट अर्थात खत्म हुई ) अपि, ( भी ) अनष्टम्, ( कभी नष्ट या खत्म न होने वाली ) तद् -अन्य, ( उससे अर्थात मुक्त पुरूष से भिन्न या अलग ) साधारणत्वात्, ( सामान्य पुरुषों के लिए )
सूत्रार्थ :- जो मुक्त पुरूष होते हैं उनके लिए इस सृष्टि का कोई प्रयोजन न रहने से यह उनके लिए नष्ट हुई के समान है । लेकिन जो अन्य सामान्य पुरुष हैं उनके लिए इसका प्रयोजन अभी भी वैसा ही है । इसलिए यह उनके लिए नष्ट नहीं होती है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में मुक्त पुरूष व साधारण मनुष्य के बीच के भेद को बताया गया है ।
इस सृष्टि का निर्माण पुरूष के भोग व मोक्ष के लिए ही हुआ है । जब कोई योगी साधक योग साधना के बल पर मुक्ति को प्राप्त कर लेता है तो उसके लिए तो यह सारी सृष्टि न के बराबर हो जाती है । अर्थात उसका उद्देश्य पूरा होने पर इस सृष्टि का उसके लिए कोई प्रयोजन नहीं रहता । एक प्रकार से उसके लिए यह नष्ट हुई के समान है ।
लेकिन इस सृष्टि का निर्माण केवल एक ही पुरूष को मुक्ति दिलाने के लिए तो हुआ नहीं है । अतः जो अन्य मनुष्य हैं उनके लिए तो यह सृष्टि पहले के जैसी अर्थात बिना नष्ट हुई के समान ही है ।
मनुष्य के जीवन का परम उद्देश्य होता है मोक्ष, मुक्ति अथवा समाधि की प्राप्ति करना । इसके लिए सभी अपने – अपने स्तर पर प्रयास करते हैं । कुछ का प्रयास जल्दी पूरा हो जाता है तो कुछ का देरी से । इसलिए जिनका प्रयास पहले पूरा हो गया उनके लिए तो यह नष्ट के समान है । और जो अभी प्रयत्नशील है उनके लिए यह पहले जैसी अर्थात अनष्ट
के समान है ।
उदाहरण स्वरूप :- प्रत्येक वर्ष हमारे देश में यू०पी०एस०ई० ( सिविल सर्विस ) की परीक्षा आयोजित की जाती है । जिसमें सफल होने पर आई० ए० एस० ( डी० सी० ) बनते हैं । लाखों विद्यार्थी उस परीक्षा को देते हैं । उनमें से कुछ सौ प्रतिभागी ही आई० ए० एस० के लिए चयनित हो पाते हैं । उनसे कुछ नीचे की रैंक वालों को आई०पी०एस०, आई० एफ० एस व आई० आर० एस० की नियुक्ति मिलती है । जो भी विद्यार्थी एक बार आई० ए० एस० बनने में सफलता प्राप्त कर लेता है । तो उसके बाद हर वर्ष आयोजित होने वाली इस परीक्षा का उसके लिए क्या प्रयोजन है ? कुछ नहीं । उसके लिए तो यह न के बराबर है । लेकिन कुछ सौ के आई० ए० एस० बनने से उस परीक्षा का औचित्य खत्म नहीं होता है । क्योंकि यह परीक्षा सभी को अवसर प्रदान करने के लिए आयोजित की जाती है ।
जो इसमें एक बार पास हुआ तो दोबारा उसके लिए यह नहीं के बराबर है । और जो अभी सफल नहीं हुएं है उनके लिए तो यह पहले के समान है ।
ठीक इसी प्रकार जैसे यू०पी०एस०ई० की परीक्षा का उद्देश्य
आई० ए० एस० बनाना होता है । वैसे ही इस सृष्टि का निर्माण भी मुक्ति प्राप्त करवाने के लिए हुआ है । जैसे ही कोई ज्यादा मेहनत करके अपने उद्देश्य में सफल हो जाता है । अर्थात आई० ए० एस० बन जाता है । तो उसके लिए उस परीक्षा का कोई प्रयोजन नहीं रहता । ठीक वैसे ही जब योग साधना के बल पर कोई मुक्ति प्राप्त कर लेता है । तो उसके लिए भी इस प्रकृत्ति का कोई प्रयोजन नहीं रहता है । लेकिन जिनको अभी तक परीक्षा में सफलता या जीवन में मुक्ति नहीं मिली है । उनके लिए इन दोनों का ही प्रयोजन अभी बना हुआ है ।
Thanku sir?
1.संसार स्वप्न तुल्यो ही राग द्वेष आदि शंकुलः—–2.मया तत् इदं सर्वं जगत् अव्यक्त मूर्तिना—–आदि
मे विरोधाभास है।प्रकृति के अस्तित्व हीन होते ही उसके सदस्य अन्य पुरुष भी अस्तित्वहीन हो जाते हैं।अतः उनके लिये यह कैसे रहती है।
Thanks guru ji
Right example for explaining principle
बहुत ही सुन्दर।उदाहरण बहुत सरल दिया है। हृदयंगम।
Nice example guru ji.
Thank you so much Arya sir
जय जिनेन्द्र महोदय जी अति उत्तम अभिव्यक्ति सरल उदाहरण स्वरूप । धन्यवाद
1.संसार स्वप्न तुल्यो ही राग द्वेष आदि शंकुलः—–2.मया तत् इदं सर्वं जगत् अव्यक्त मूर्तिना—–आदि
मे विरोधाभास है।प्रकृति के अस्तित्व हीन होते ही उसके सदस्य अन्य पुरुष भी अस्तित्वहीन हो जाते हैं।अतः उनके लिये यह कैसे रहती है।
Pranaam Sir! Your examples make the explanation of the Sutra very easy to understand.
?Prnam Aacharya ji! Thank very you for giving such a nice explanation .?
1.संसार स्वप्न तुल्यो ही राग द्वेष आदि शंकुलः—–2.मया तत् इदं सर्वं जगत् अव्यक्त मूर्तिना—–आदि
मे विरोधाभास है।प्रकृति के अस्तित्व हीन होते ही उसके सदस्य अन्य पुरुष भी अस्तित्वहीन हो जाते हैं।अतः उनके लिये यह कैसे रहती है।