द्रष्टा दृशिमात्र: शुद्धोऽपि प्रत्ययानु पश्य: ।। 20 ।।

 

शब्दार्थ :- द्रष्टा, ( देखने वाला अर्थात पुरूष ) दृशिमात्र:, ( चेतन अर्थात आत्मा ) शुद्ध, ( बिना विकार अथवा बिना मिलावट के ) अपि, ( भी ) प्रत्यय, ( बुद्धि के सम्पर्क से ) अनुपश्य:, ( उसी के अनुसार देखने वाला या मानने वाला )

 

सूत्रार्थ :- जो चेतन मात्र, ( ज्ञानवान ) देखने वाला द्रष्टा होता है । वह सभी विकारों जैसे अज्ञान व अंधकार से रहित होता हुआ भी प्रकृत्ति के सम्पर्क में आने से जैसी वृत्ति होती है । वह उसको उसी के अनुसार देखने या उसी के अनुसार मानने वाला हो जाता है ।

 

 

व्याख्या :- इस सूत्र में द्रष्टा अर्थात आत्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है कि यह आत्मा चेतन तथा शुद्ध ज्ञान वाली है । जिसमें किसी भी प्रकार का कोई विकार या दोष नहीं है । यह बिना किसी प्रकार की मिलावट के पूर्ण रूप से शुद्ध है । लेकिन जब इसका सम्बन्ध बुद्धि के साथ हो जाता है तो यह बुद्धि की तरह ही देखने लगती है ।

 

आत्मा में शुद्ध ज्ञान अवश्य है परन्तु वह देख नहीं सकती । देखने का काम बुद्धि का ही होता है । आत्मा का बुद्धि के साथ सम्पर्क स्थापित होने से आत्मा वही देखती है जो बुद्धि उसे दिखाती है । बुद्धि का निर्माण तीन गुणों से मिलकर हुआ है । इसलिए बुद्धि को त्रिगुणात्मक कहते हैं । यह बुद्धि जड़ पदार्थ अर्थात जिसकी अपनी कोई सत्ता ( आधिपत्य )  नहीं है । इसके विपरीत आत्मा शुद्ध चेतन है । जिसकी अपनी सत्ता है ।

 

जब आत्मा अज्ञानता के कारण प्राकृतिक पदार्थों के स्वभाव को अपना स्वभाव मानने लगता है ।  तीन गुणों ( सत्त्व, रज व तम ) में से किसी भी गुण का प्रभाव बढ़ता है तो वह वैसे ही व्यवहार करता है । जैसे – तमोगुण के बढ़ने से व्यक्ति निद्रा, तंद्रा व आलस्य वाला बन जाता है । उस समय आत्मा अज्ञानता के कारण उस स्थिति को अपनी स्थिति मान लेती है । जबकि वह केवल उस गुण के प्रभाव में घटी घटना मात्र है । और जैसे ही मनुष्य में सत्त्वगुण की वृद्धि होती है तो वैसे ही व्यक्ति धर्म, कर्म, दान, उपासना आदि कामों में लीन हो जाता है । यहाँ पर भी आत्मा अज्ञानता के कारण इसे अपना ही स्वरूप समझने की भूल करता है ।

 

ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आत्मा तक जो ज्ञान या जानकारी पहुँचती है । उसे पहुँचाने का जिम्मा स्वंम बुद्धि के पास होता है । अतः बुद्धि वह साधन है जिसके द्वारा आत्मा को ज्ञान का आभास होता है । इसीलिए आत्मा शुद्ध चेतन होते हुए भी बुद्धि के सम्पर्क में आने वह उसी के अनुसार देखने लगता है । इसके पीछे भी वह अस्मिता नामक क्लेश कारण रूप में विद्यमान होता है । अस्मिता का अर्थ है दो अलग- अलग वस्तुओं या पदार्थों को एक ही मानने की गलती करना । ठीक यहीं इस सूत्र में बताया गया है ।

 

जैसे ही इस आत्मा का दृश्य से सम्बन्ध टूटता है वैसे ही आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को जनता है ।

यही इसका यथार्थ रूप है ।

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  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति गुरुदेव।

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