परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिन: ।। 15 ।।

 

शब्दार्थ :- परिणाम दुःख, ( भौतिक सुखों को भोगने के बाद राग से उत्पन्न दुःख ) ताप दुःख, ( सुख में बाधा डालने वाले के प्रति द्वेष करने से उत्पन्न दुःख ) संस्कार दुःख, ( सुख व दुःख के संस्कार बनने से सुख की इच्छा पूरी न होने से उत्पन्न दुःख ) च, ( और ) गुणवृत्ति, ( सत्त्व, रज, तम के कार्य में ) विरोध दुःख ( उनके आपसी मतभेद से उत्पन्न दुःख के कारण ) विवेकिन:, ( विवेकी पुरुषों के लिए ) सर्वम्, ( सभी ) दुःखम् एव, ( दुःख का ही रूप है । )

 

सूत्रार्थ :- परिणाम दुःख, ताप दुःख,  संस्कार दुःख और सत्त्व, रज व तम के कार्यों में आपसी मतभेद के कारण उत्पन्न होने वाला दुःख । यह सब एक योगी पुरुष के लिए दुःख का ही रूप होते हैं । अन्य कुछ नहीं ।

  

व्याख्या :- इस सूत्र में विवेकी पुरूष के दृष्टिकोण को दिखाया गया है ।

इसमें मुख्य रूप से तीन प्रकार के दुःखो का वर्णन किया गया है ।

 

परिणाम दुःख :-  हम इन्द्रियों से मिलने वाली तृप्ति या सुखद अहसास को ही सुख समझने लगते हैं । लेकिन वास्तव में वह सुख नहीं है । इस प्रकार इन्द्रियों से उत्पन्न तृप्ति कभी भी शान्त नहीं होती बल्कि उनको और भी ज्यादा पाने की इच्छा होती रहती है । जैसे – स्वादिष्ट भोजन, सुन्दर स्त्री या पुरुष का सहयोग, आनन्द प्राप्ति के साधन आदि । इन सभी से हमें केवल एक क्षण के लिए तो आनंद मिलता है । लेकिन यह वास्तव में सुख नहीं है । यह एक पल की तृप्ति हमारी इन्द्रियों को कमजोर कर देती है । इसी को परिणाम दुःख कहते हैं ।

 

ताप दुःख :- सुख पहुँचाने वाले साधनों व व्यक्तियों के प्रति राग अर्थात आसक्ति होना । दुःख पहुँचाने वाले साधनों व व्यक्तियों के प्रति द्वेष या घृणा होना ही ताप दुःख कहलाता है । ये राग व द्वेष दोनों ही दुःख पहुँचाने वाले होते हैं ।

 

संस्कार दुःख :- मनुष्य में सुख के भोगने से सुख के संस्कार व दुःख को भोगने से दुःख के संस्कार बनते हैं । इन सुख व दुःख के संस्कारों से व्यक्ति इसी जीवन – मरण के चक्कर में फँसा रहता है । उसके चित्त में सुख व दुःख के संस्कार घूमते रहते हैं । यही संस्कार दुःख है ।

 

गुण वृत्ति विरोध दुःख :- गुण का अर्थ है सत्त्वगुण, रजोगुण व तमोगुण । वृत्ति का अर्थ है इनका कार्य । व विरोध का अर्थ होता है आपसी मतभेद । इन सभी गुणों का कार्य अलग- अलग होता है । सत्त्वगुण सुख, ज्ञान व प्रकाश का अनुभव करवाता है । रजोगुण इच्छाओं व चंचलता का अनुभव करवाता है । व तमोगुण अज्ञान व अंधकार का अनुभव करवाता है । लेकिन आपसी जब इन गुणों में आपसी तालमेल टूटता है तब यह एक दूसरे के ऊपर दबाव बनाते हैं । उसमें सत्त्वगुण रजोगुण पर रजोगुण तमोगुण पर व तमोगुण सत्त्वगुण पर प्रभावी होने का प्रयास करते रहते हैं । और एक गुण के प्रभावी होने से बाकी के दो गुण स्वंम ही दब जाते है । ऐसी अवस्था में शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं । यह स्थिति भी दुःख को उत्पन्न करने वाली होती है ।

 

यह सब उन व्यक्तियों के साथ होता है जिनके अन्दर विवेक नहीं होता । लेकिन जो विवेकी अर्थात योगी पुरुष होते हैं । उनके लिए यह सब केवल दुःख का ही एक रूप है । इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं ।

 

इस प्रकार के दुःखो से सामान्य व्यक्ति ही पीड़ित रहता है । विवेकी पुरूष नहीं ।

Related Posts

July 11, 2018

तत: परमा वश्यतेन्द्रियाणाम् ।। 55 ।। शब्दार्थ :- तत: ( उसके बाद अर्थात प्रत्याहार ...

Read More

July 11, 2018

स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहार: ।। 54 ।। शब्दार्थ :- स्वविषय ( अपने- अपने विषयों ...

Read More

July 11, 2018

तत: क्षीयते प्रकाशावरणम् ।। 52 ।।   शब्दार्थ :- तत: ( उस अर्थात प्राणायाम ...

Read More
Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked

{"email":"Email address invalid","url":"Website address invalid","required":"Required field missing"}