ते प्रतिप्रसवहेया: सूक्ष्मा: ।। 10 ।।

 

शब्दार्थ :- ते, ( वें ) सूक्ष्मा:, ( प्रभावहीन )  प्रतिप्रसवहेया, ( क्लेश चित्त के साथ ही प्रकृत्ति में लीन हो जाते हैं । )

 

सूत्रार्थ :- चित्त के प्रकृत्ति में लीन होते ही वें प्रभावहीन सभी अविद्या आदि क्लेश भी चित्त के साथ ही प्रकृत्ति में लीन हो जाते हैं ।

 

व्याख्या :- इसमें क्लेशों की प्रभावहीन अवस्था के परिणाम का वर्णन किया गया है । जब साधक योग साधना का अभ्यास करते हुए अपने चित्त को निर्मल बना लेता है । तब उस निर्मल चित्त के ऊपर साधक का पूर्ण अधिकार हो जाता है । और उसकी चित्त की सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है । ऐसा चित्त अपने उपादान कारण अर्थात अपने उत्पत्ति के कारण प्रकृत्ति में लीन हो जाता है । ठीक इसी प्रकार से क्रियायोग से साधक अपने सभी क्लेशों को अत्यंत सूक्ष्म अर्थात प्रभावहीन कर देता है । वह प्रभावहीन किए गए क्लेश भी निर्मल किए गए चित्त के साथ ही प्रकृत्ति में लीन हो जाते हैं ।

 

क्लेशों को प्रभावहीन करने के लिए सबसे पहले साधक को क्रियायोग की साधना का अभ्यास करना पड़ता है । जैसे ही तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान आदि क्रियाओं से क्लेश निर्बल होते हैं । वैसे ही वह निर्मल हुए चित्त की भाँति प्रकृत्ति में ही लीन अर्थात समाप्त हो जाते हैं ।

 

क्योंकि उन सभी क्लेशों का उपादान अर्थात उत्पत्ति का कारण भी स्वंम प्रकृत्ति ही है । अतः वह निर्बल हुए क्लेश भी प्रकृत्ति में लीन हो जाते हैं । जो वस्तु या पदार्थ जिससे उत्पन्न होता है अन्त में वह उसी में लीन होता है । जैसे – घड़े की उत्पत्ति मिट्टी से होती है । और जब घड़ा गल कर खत्म हो जाता है, तब वह वापिस मिट्टी में मिलने से दोबारा मिट्टी बन जाता है । ठीक इसी प्रकार चित्त व क्लेश भी अन्त में अपने -अपने उपादान अर्थात उत्पत्ति के कारण में ही लीन अर्थात मिल जाते हैं ।

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  1. ?Prnam Aacharya ji! This sutra contains higher Philosophy ..thank you so much for this true knowledge **OM ?

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