नादानुसन्धान वर्णन

 

अशक्यतत्त्वबोधानां मूढानामपि सम्मतम् ।

प्रोक्तं गोरक्षनाथेन नादोपासनमुच्यते ।। 65 ।।

 

भावार्थ :- जिन निम्न कोटि के योग साधकों को उस परम तत्त्व का ज्ञान नहीं हो पाता है । उन सभी के लिए गुरु गोरक्षनाथ द्वारा स्वीकृत ( मानी गई ) नादयोग उपासना की विधि का वर्णन किया गया है ।

 

 

श्री आदिनाथेन सपादकोटिलयप्रकारा: कथिता जयन्ति ।

नादानुसन्धानकमेकमेव मन्यामहे मुख्यतमं लयानाम् ।। 66 ।।

 

भावार्थ :- श्री आदिनाथ शिव ( भगवान शिव ) के द्वारा नादयोग साधना के सवा करोड़ प्रकार बताए हैं अर्थात् भगवान शिव ने नादयोग साधना की सवा करोड़ विधियों का वर्णन किया है । उनमें से मैं नादयोग को सबसे महत्त्वपूर्ण मानता हूँ ।

 

 

मुक्तासने स्थितो योगी मुद्रां सन्धाय शाम्भवीम् ।

शृणुयाद्देक्षिणे कर्णे नादमन्तस्थमेकधी: ।। 67 ।।

 

भावार्थ :- इसके लिए सबसे पहले साधक मुक्तासन की स्थिति में बैठकर शाम्भवी मुद्रा को लगाए । इसके बाद पूरी तरह से एकाग्रचित्त होकर अपने दायें कान से शरीर के अन्दर से आने वाली आवाज को सुनने की कोशिश करे ।

 

 

श्रवणपुटनयनयुगल घ्राणमुखानां निरोधनं कार्यम् ।

शुद्धसुषुम्नासरणौ स्फुटममल: श्रूयते नाद: ।। 68 ।।

 

भावार्थ :- जब साधक अपने दोनों कान, दोनों आँख, नासिका के दोनों छिद्रों और मुहँ को बन्द कर लेता है । तब उसे पूरी तरह से शुद्ध सुषुम्ना मार्ग से पूरी तरह से स्पष्ट व पवित्र नाद सुनाई पड़ता है ।

 

 

नादयोग की चार अवस्थाएँ

 

आरम्भश्च घटश्चैव तथा परिचयोऽपि च ।

निष्पत्ति: सर्वयोगेषु स्यादवस्थाचतुष्टयम् ।। 69 ।।

 

भावार्थ :- सभी प्रकार की योग साधना पद्धतियों में मुख्य रूप से चार प्रकार की अवस्थाएँ पाई जाती हैं । जिन्हें क्रमशः आरम्भ अवस्था, घट अवस्था, परिचय अवस्था व निष्पत्ति अवस्था कहा जाता है ।

 

विशेष :- इस श्लोक में नादयोग की सभी अवस्थाओं को क्रमानुसार दर्शाया गया है । परीक्षा की दृष्टि से भी यह श्लोक अति महत्त्वपूर्ण है । बहुत बार नाद की पहली से लेकर अन्तिम अवस्था तक इनके सही क्रम को पूछा जाता है । अतः सभी विद्यार्थी इनके इस क्रम को याद करलें ।

 

 

आरम्भ अवस्था के लक्षण

 

ब्रह्मग्रन्थेर्भवेद् भेदादानन्द: शून्यसम्भव: ।

विचित्र: क्वणको देहेऽनाहत: श्रूयते ध्वनि: ।। 70 ।।

दिव्यदेहसश्च तेजस्वी दिव्यगन्धस्त्वरोगवान् ।

सम्पूर्णहृदय: शून्य आरम्भे योगवान् भवेत् ।। 71 ।।

 

भावार्थ :- नादयोग की पहली अवस्था में साधक की ब्रह्मग्रन्थि का भेदन हो जाता है । जिससे साधक विचार शून्य अर्थात् विचारों से रहित हो जाता है । विचार शून्यता के परिणाम स्वरूप उसे दिव्य आनन्द की अनुभूति ( अहसास ) होती है । शरीर में असाधारण प्रकार की ध्वनियाँ सुनाई देती हैं । साधक का शरीर दिव्य गन्ध व दिव्य तेज से युक्त हो जाता है । वह सभी प्रकार के रोगों से मुक्त हो जाता है साथ ही उसका चित्त प्रसन्न होकर शून्य भाव को प्राप्त हो जाता है ।

 

 

घटावस्था के लक्षण

 

द्वितीयायां घटीकृत्य वायुर्भवति मध्यग: ।

दृढासनो भवेद्योगी ज्ञानी देवसमस्ततथा ।। 72 ।।

विष्णुग्रन्थेस्ततो भेदात् परमानन्दसूचक: ।

अतिशून्ये विमर्दश्च  भेरीशब्दस्तदा भवेत् ।। 73 ।।

 

भावार्थ :- दूसरी अवस्था अर्थात् नाद की घटवस्था में प्राणवायु शरीर को घड़ा बनाकर सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कर जाती है । जिससे साधक का आसन मजबूत हो जाता है और योगी के अन्दर देवताओं के समान ज्ञान हो जाता है । जिसके बाद उस साधक की विष्णु ग्रन्थि का भेदन ( खुल जाना ) हो जाता है । तब साधक शून्यभाव होकर परम आनन्द को देने वाले विमर्द और भेरी ( वाद्ययंत्र ) नामक शब्दों को सुनता है

 

परिचय अवस्था के लक्षण

 

तृतीयायां तु विज्ञेयो विहायो मर्दलध्वनि: ।

महाशून्यं तदा याति सर्वसिद्धि समाश्रयम् ।। 74 ।।

चित्तानन्दं तदा जित्वा सहजानन्दसम्भव: ।

दोषदुःखजराव्याधिक्षुधानिद्राविवर्जित: ।। 75 ।।

 

भावार्थ :- नादयोग की इस तीसरी अवस्था में साधक को हृदय आकाश में मर्दल नामक वाद्ययंत्र की ध्वनि सुनाई देती है । प्राण सभी सिद्धियों को प्रदान करवाने वाले उस आकाश तत्त्व में पहुँच कर वहाँ स्थित विशुद्धि चक्र का भेदन करता है । जिसके परिणाम स्वरूप साधक को सहजानन्द की प्राप्ति होती है । इसके अलावा योगी सभी दोषों ( वात, पित्त, कफ ), सभी प्रकार के दुःखों, बुढ़ापा, सभी रोगों, भूख व निद्रा से मुक्त हो जाता है ।

 

 

निष्पत्ति अवस्था के लक्षण

 

 रुद्रग्रन्थिं यदा भित्वा शर्वपीठगतोऽनिल: ।

निष्पत्तौ वैणव: शब्द: क्वणद्वीणाक्वणो भवेत् ।। 76 ।।

एकीभूतं तदा चित्तं राजयोगाभिधानकम् ।

सृष्टिसंहारकर्तासौ योगीश्वरसमो भवेत् ।। 77 ।।

भावार्थ :- नादयोग की चौथी अवस्था अर्थात् निष्पत्ति में साधक का प्राण रुद्रग्रन्थि का भेदन करके आज्ञा चक्र में स्थित हो जाता है । जिसके परिणाम स्वरूप साधक को वीणा नामक अत्यन्त मनमोहक वाद्ययन्त्र की ध्वनि सुनाई देती है । साथ ही चित्त एकाग्र अवस्था को प्राप्त हो जाता है । जिसे राजयोग नामक समाधि कहा जाता है । इस अवस्था में साधक में ईश्वर के समान सृष्टि को बनाने व नष्ट करने का सामर्थ्य आ जाता है ।

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  1. Pranaam Sir! Very Beautifully explained all the stages which even made it easy for us to learn and remember. Thank you. ??

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