महति श्रूयमाणेऽपि मेघभेर्यादिके ध्वनौ ।

तत्र सूक्ष्मात् सूक्ष्मतरं नादमेव परा मृशेत् ।। 87 ।।

 

भावार्थ :-  साधक को बादल के गरजने व भेरी जैसे तीव्र ध्वनि वाले नाद सुनाई देने पर भी उसे सूक्ष्म से भी सूक्ष्म ध्वनियों को ही सुनने की कोशिश करनी चाहिए ।

 

 

घनमृत्युज्य वा सूक्ष्मे सूक्ष्ममृत्युज्य वा घने ।

रममाणमपि क्षिप्तं मनो नान्यत्र चलायेत् ।। 88 ।।

 

भावार्थ :- जब नाद को सुनते हुए हमारा मन तीव्र ध्वनि से सूक्ष्म ध्वनि की ओर या सूक्ष्म ध्वनि से तीव्र ध्वनि की ओर घूमता रहता है तो भी साधक को अपने चंचल मन को इन ध्वनियों से अलग अन्य कहीं पर नहीं लेकर जाना चाहिए । तात्पर्य यह है कि साधक अपने मन को इन्ही ध्वनियों के मध्य रखे । इनके अतिरिक्त कहीं अन्य स्थान पर मन को नहीं लेकर जाना चाहिए ।

 

 

यत्र कुत्रापि वा नादे लगति प्रथमं मन: ।

तत्रैव सुस्थिरीभूय तेन सार्धं विलीयते ।। 89 ।।

मकरन्दं पिबन् भृङ्गो गन्धं नापेक्षते यथा ।

नादासक्तं तथा चित्तं विषयान्न हि काङ्क्षते ।। 90 ।।

 

 

भावार्थ :- जब साधक का मन पहली बार किसी प्रकार के नाद ( ध्वनि ) को सुनता है तो उसका मन उसी ध्वनि के साथ लग जाता है और उसी नाद के साथ मन का एकीकरण ( मिलन ) हो जाता है अर्थात् जहाँ पर जिस भी नाद में एक बार मन लगता है तो वह वहीं पर उसके साथ लीन हो जाता है । जिस प्रकार फूलों के रस को पीने वाला भँवरा ( एक प्रकार का कीट ) उस रस की गन्ध की परवाह नहीं करता । ठीक उसी प्रकार जब साधक का मन नाद में पूरी तरह से लीन हो जाता है तो उसका मन किसी भी बाहरी विषय की कोई लालसा नहीं रखता है ।

 

 

मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिण: ।

नियन्त्रणे समर्थोऽयं निनादनिशिताङ्कुश: ।। 91 ।।

 

भावार्थ :- विषय रूपी उद्यान ( बाग ) में विचरण ( घूमने ) करने वाले मन रूपी मतवाले ( अपनी मस्ती में घूमने वाला ) हाथी को वश में करने के लिए नाद रूपी तीव्र नोक वाला हथियार ही समर्थ ( उपयोगी ) होता है ।

 

 

विशेष :- हाथी को वश में करने के लिए उसका महावत ( हाथी की देखभाल व उसे चलाने वाला )  तेज नोक वाले हथियार का प्रयोग करता है । यहाँ पर नाद को तीव्र नोक वाले हथियार के रूप में सम्बोधित किया गया है ।

 

 

बद्धं तु नादबन्धेन मन: संत्यक्तचापलम् ।

प्रयाति सुतरां स्थर्यं छिन्नपक्ष: खगो यथा ।। 92 ।।

 

भावार्थ :- नादयोग के प्रभाव से हमारा मन अपनी चंचलता को छोड़ कर इस प्रकार स्थिर हो जाता है । जिस प्रकार एक पंख कटा हुआ पक्षी उड़ने में असमर्थ होने के कारण एक जगह स्थिर हो जाता है ।

 

 

सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा ।

नाद एवानुसन्धेयो योगसाम्राज्यमिच्छता ।। 93 ।।

 

भावार्थ :- जो योग साधक योग साधना में पूर्णता प्राप्त करना चाहते हैं । उन्हें अपनी सभी प्रकार की चिन्ताओं का त्याग करके मन को एकाग्र करते हुए केवल नादानुसन्धान का ही अभ्यास करना चाहिए ।

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  1. लक्ष्मी नारायण योग शिक्षक पतंजलि योगपीठ हरिव्दार ।l says:

    ऊॅ सर जी !बहुत बहुत धन्यवाद ।

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