सर्वावस्थाविनिर्मुक्त: सर्वचिन्ताविवर्जित: ।
मृतवत्तिष्ठते योगी स मुक्तो नात्र संशय: ।। 107 ।।
भावार्थ :- जो योगी साधक सभी अवस्थाओं से मुक्त ( रहित ) होता है, सभी प्रकार की चिन्ताओं से जो दूर होता है । वह मरे हुए प्राणी की भाँति स्थिर रहता है । ऐसा योगी पूर्ण रूप से मुक्त होता है । इसमें किसी तरह का कोई सन्देह ( शक ) नहीं है ।
खाद्यते न च कालेन बाध्यते न च कर्मणा ।
साध्यते न स केनापि योगी युक्त: समाधिना ।। 108 ।।
भावार्थ :- समाधिस्थ योगी सभी प्रकार की अवस्थाओं से मुक्त होने के कारण मृत्यु को प्राप्त नहीं होता । न ही कर्म संस्कार उसको बाधा सकते हैं । ऐसे योगी को किसी भी प्रकार के उपाय से वश ( नियंत्रण ) में नहीं किया जा सकता । वह सदा मुक्त ही रहता है ।
न गन्धं न रसं न च स्पर्शं न नि:स्वनम् ।
नात्मानं न परं वेत्ति योगी युक्त: समाधिना ।। 109 ।।
भावार्थ :- समाधिस्थ योगी को किसी भी प्रकार की गन्ध, रस, रूप ( दर्शन ) व स्पर्श आदि का अनुभव नहीं होता । वह इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान से रहित अवस्था वाला हो जाता है । यहाँ तक की उसे अपना व दूसरे प्राणियों का भी ध्यान नहीं रहता । वह तो पूरी तरह से मुक्त हो कर रहता है ।
चित्तं न सुप्तं नो जाग्रत् स्मृतिविस्मृतिवर्जितम् ।
न चास्तमेति नोदेति यस्यासौ मुक्त एव स: ।। 110 ।।
भावार्थ :- जिस भी योगी साधक का चित्त जाग्रत व सुप्त अवस्था से, स्मृतियों व विस्मृतियों से व उदय और अस्त से पूरी तरह से अप्रभावित ( रहित ) है । वही साधक पूरी तरह से मुक्त अवस्था वाला होता है ।
न विजानाति शीतोष्णं न दुःखं न सुखं तथा ।
न मानं नापमानं च योगी युक्त: समाधिना ।। 111 ।।
भावार्थ :- समाधिस्थ योगी को कभी भी सर्दी- गर्मी, सुख- दुःख व मान- अपमान का अनुभव नहीं होता । वह इन सभी द्वन्द्वों से पूरी तरह से मुक्त होता है । इनका उसके ऊपर कोई प्रभाव नहीं होता अर्थात् वह इन सभी स्थितियों में सम रहता है ।
स्वस्थो जाग्रदवस्थायां सुप्तवद्योऽवतिष्ठते ।
नि:श्वासोच्छ् वासहीनश्च निश्चितं मुक्त: एव स: ।। 112 ।।
भावार्थ :- जो योगी साधक पूर्ण रूप से स्वस्थ होता है । वह जागते हुए भी सोये हुए के समान स्थिर रहता है अर्थात् उसमें किसी प्रकार की चंचलता नहीं रहती । उसके श्वास व प्रश्वास की गति भी स्थिर ( नियन्त्रित ) हो जाती है । इसी अवस्था वाला साधक ही निश्चित रूप से मुक्त होता हैं ।
अवध्य: सर्वशस्त्राणामशक्य: सर्वदेहिनाम् ।
अग्राह्यो मन्त्रयन्त्रणां योगी युक्त: समाधिना ।। 113 ।।
भावार्थ :- समाधिस्थ योगी का शरीर सभी प्रकार के हथियारों के प्रभाव से रहित होता है अर्थात् उसे किसी भी प्रकार के अस्त्र- शस्त्र से मारा नहीं जा सकता । साथ ही वह सभी प्राणियों के नियंत्रण से बाहर होता है । उसके ऊपर किसी प्रकार की कोई तन्त्र- मन्त्र की शक्ति भी असर नहीं करती है । इस प्रकार वह योगी अद्भुत शक्ति से परिपूर्ण होता है ।
यावन्नैव प्रविशति चरन् मारुतौ मध्यमार्गे यावद् बिन्दुर्न भवति दृढ: प्राणावातप्रबन्धात् ।
यावद् ध्याने सहजसदृशं जायते नैव तत्त्वम् तावज्ज्ञानं वदति तदिदं दम्भमिथ्याप्रलाप: ।। 114 ।।
भावार्थ :- जब तक साधक का चलता हुआ प्राणवायु सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश नहीं करता है, जब तक प्राणवायु के नियंत्रण द्वारा वीर्य शरीर में स्थिर नहीं होता, जब तक उस परमतत्त्व ( परमात्मा ) का ध्यान आसानी से नहीं हो जाता । तब तक उसे जो ज्ञान है अर्थात् जिसे वह ज्ञान मानता है । वह अभिमान द्वारा पैदा हुआ झूठा राग ही है ।
Thank you sir???
धन्यवाद।
ॐ गुरुदेव*
बहुत बहुत आभार।
ॐ गुरुदेव*
हम सभी को इतने लगन व निष्ठा से योग सुधा का रसपान
कराने हेतु आपको हृदय से परम आभार प्रेषित करता हूं।
नमस्कार जी!?
मुझे आपके द्वारा कहीं गई हठयोग प्रदीपिका मिल सकती है क्या? मैं उसका दुरुपयोग नहीं करूंगा बस स्वाध्याय के लिए चाहिए।