बाह्यावायुर्यथा लीनस्तथा मध्यो न संशय: ।

स्वस्थाने स्थिरतामेति पवनो मनसा सह ।। 51 ।।

 

भावार्थ :- जिस प्रकार बाहर से लिया जाने वाला प्राणवायु स्थिर हो जाता है । उसी प्रकार मध्ये अर्थात् शरीर के अन्दर स्थित प्राणवायु भी स्थिर हो जाता है । तब अपने स्थान पर स्थित प्राणवायु मन के साथ मिलकर स्थिर हो जाती है । इसमें कोई सन्देह नहीं है ।

 

 

एवमभ्यसमानस्य वायुमार्गे दिवानिशम् ।

अभ्यासाज्जीर्यते वायुर्मनस्तत्रैव लीयते ।। 52 ।।

 

भावार्थ :- ऊपर वर्णित विधि के अनुसार प्राणवायु का दिन – रात अभ्यास करने से साधक प्राणवायु को जीत लेता है । जिससे प्राण गतिविहीन अथवा स्थिर हो जाता है । इस अवस्था में प्राण के साथ मन भी लीन ( स्थिर ) हो जाता है ।

 

 

अमृतै: प्लावयेद्देहमापादतलमस्तकम् ।

सिद्धयत्येव महाकायो महाबलपराक्रम् ।। 53 ।।

 

भावार्थ :- ऊपर वर्णित साधना साधक को पैर से लेकर सिर तक सोमरस रूपी अमृत से परिपूर्ण ( भर ) कर देती है । जिससे साधक का शरीर विशाल ( बड़ा ) व अत्यन्त बल व पराक्रम से युक्त हो जाता है ।

 

 

शक्तिमध्ये मन: कृत्वा शक्तिं मानसमध्यगाम् ।

मनसा मन आलोक्य धारयेत् परमं पदम् ।। 54 ।।

 

भावार्थ :- पहले साधक अपने मन को कुण्डलिनी शक्ति में स्थिर करे ( लगाए ) और फिर कुण्डलिनी शक्ति को मन में स्थिर करे । इस प्रकार योगी अपने मन को अपने ही मन में स्थिर करता हुआ उस परमपद अर्थात् सर्वोच्य पद ( समाधि ) को प्राप्त कर लेता है ।

 

 

खमध्ये कुरुचात्मानमात्ममध्ये च खं कुरु ।

सर्वं च खमयं कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ।। 55 ।।

 

भावार्थ :- मैं आकाश में और आकाश मुझमें स्थित है । इस प्रकार के भाव का ही विचार साधक को करना चाहिए । साथ ही सभी को ब्रह्म का अंश मानकर केवल उसी का चिन्तन अथवा उपासना करनी चाहिए । अन्य किसी की नहीं ।

 

 

अन्त: शून्यो: बहि: शून्य: कुम्भ इवाम्बरे ।

अतः पूर्णो बहि: पूर्ण: पूर्ण: कुम्भ इवार्णवे ।। 56 ।। 

बाह्यचिन्ता न कर्तव्या तथैवान्तरचिन्तनम् ।

सर्वचिन्तां परित्यज्य न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ।। 57 ।।

 

 

भावार्थ :- जिस प्रकार खाली घड़े के बाहर और अन्दर का हिस्सा खाली रहता है अर्थात् वह शून्य स्थान कहलाता है । जिसे हम आकाश की संज्ञा देते हैं । ठीक इसी प्रकार पानी में डूबा हुआ घड़ा जिस प्रकार अन्दर व बाहर दोनों प्रकार से ही पानी से युक्त होता है अर्थात् उस घड़े के अन्दर भी जल होता है और उसके बाहर भी जल होता है । अतः जिस तरह घड़ा अन्दर व बाहर दोनों ही प्रकार से पूर्ण होता है ठीक उसी प्रकार योगी को भी साधना काल में सभी बाह्य ( बाहरी ) व आन्तरिक ( अन्दर ) विचारों का पूरी तरह से त्याग कर देना चाहिए । इस प्रकार योगी सभी बाहरी व भीतरी विचारों से पूरी तरह से शून्य होकर साधना करे ।

 

 

सङ्कल्पमात्रकलनैव जगत् समग्रम् सङ्कल्पमात्रकलनैव मनोविलास: ।

सङ्कल्पमात्रमतिमुत्सृज निर्विकल्पमाश्रित्य निश्चयमवाप्नुहि राम शान्तिम् ।। 58 ।।

 

भावार्थ :- हे राम! यह सम्पूर्ण जगत ( संसार )  हमारे मन की कल्पना मात्र ही है और इस जगत ( संसार ) की जितनी भी काल्पनिक रचनाएं हैं वह भी केवल हमारे मन की ही उपज ( देन ) है । अतः साधक को अपने मन द्वारा उपजी इस कल्पना के आश्रय को छोड़कर शान्ति को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए ।

 

 

कर्पूरमनले यद्वत् सैन्धवं सलिले यथा ।

तथा सन्धीयमानं च मनस्तत्त्वे विलीयते ।। 59 ।।

 

भावार्थ :- जिस तरह अग्नि में डालने से कपूर अपना स्वरूप खोकर अग्नि के अन्दर विलीन ( लीन ) हो जाता है । तथा पानी में मिलाने पर जिस प्रकार नमक अपने स्वरूप को खोकर पानी में विलीन हो जाता है । ठीक इसी प्रकार मन को ब्रह्म तत्त्व में लगाने से वह मन भी अपना स्वरूप खोकर ब्रह्म में ही विलीन हो जाता है ।

 

 

ज्ञेयं सर्वं प्रतीतं च ज्ञानं च मन उच्यते ।

ज्ञानं ज्ञेयं समं नष्टं नान्य: पन्था द्वितीयक: ।। 60 ।।

 

भावार्थ :- जो भी पदार्थ जाने जाते हैं वह सभी ज्ञान के विषय हैं और मन भी ज्ञान का ही विषय है । इस तरह ज्ञान व ज्ञान को जानने वाले अर्थात् मन दोनों को ही विलीन करने से ही उस लय का मार्ग प्रशस्त ( मिलता ) होता है । इसके अलावा कोई अन्य मार्ग नहीं है ।

 

 

मनोदृश्यमिदं सर्वं यत् किञ्चित् सचराचरम् ।

मनसो ह्युन्मनीभावाद् द्वैतं नैवोपलभ्यते ।। 61 ।।

 

भावार्थ :- यह सभी चर व अचर दिखाई देने वाला सम्पूर्ण जगत हमारे मन का ही विषय है अर्थात् यह सब मन के द्वारा ही सम्भव हो पाता है । जैसे ही हमारा मन उन्मनी भाव ( समाधि ) को प्राप्त कर लेता है । वैसे ही द्वैत भाव ( दो प्रकार का विचार ) भी समाप्त हो जाता है ।

 

 

ज्ञेयवस्तुपरित्यागाद्विलयं याति मानसम् ।

मनसो विलये जाते कैवलयमवशिष्यते ।। 62 ।।

 

भावार्थ :- जो भी ज्ञेय अर्थात् ज्ञान या जानकारी करवाने वाले पदार्थों का त्याग करने से मन भी ब्रह्म में लीन हो जाता है । इस तरह मन के ब्रह्म में लीन होने से साधक को कैवल्य ( समाधि ) की प्राप्ति हो जाती है ।

 

 

एवं नानाविधोपाया: सम्यक् स्वानुभवान्विता: ।

समाधि मार्गा: कथिता: पूर्वाचार्यैर्महात्मभि: ।। 63 ।।

 

भावार्थ :- इस प्रकार पहले उत्पन्न हुये महान योग आचार्यों ने अपनी योग साधना के समय के अनुभवों से समाधि की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार की योग विधियों का उपदेश दिया है ।

 

 

सुषुम्नायै कुण्डलिन्यै सुधायै चन्द्रजन्मने ।

मनोन्मन्यै नमस्तुभ्यं महाशक्त्यै चिदात्मने ।। 64 ।।

 

भावार्थ :- हे सुषुम्ना, कुण्डलिनी, चन्द्रमा से उत्पन्न अमृत, मनोन्मनी अवस्था ( समाधि ) व चित्त स्वरूप महाशक्ति आप सबको प्रणाम है ।

 

विशेष :- ऊपर वर्णित सभी शब्द समाधि को ही परिभाषित करते हैं । अतः सूत्रकार इनको विशेष महत्त्व देते हुए इन सबको प्रणाम करता है ।

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