खेचरी मुद्रा वर्णन

 

सव्यदक्षिणनाडिस्थो मध्ये चरति मारुत: ।

तिष्ठते खेचरी मुद्रा तस्मिन् स्थाने न संशय: ।। 43 ।।

 

भावार्थ :- चन्द्र ( बायीं नासिका ) व सूर्य ( दायीं नासिका ) में चलने वाली प्राणवायु जब  बीच में अर्थात् सुषुम्ना नाड़ी में चलने लगती है । तब वह खेचरी मुद्रा की अवस्था होती है । इसमें कोई सन्देह नहीं है ।

 

 

इडापिङ्गलयोर्मध्ये शून्यं चैवानिलं ग्रसेत् ।

तिष्ठते खेचरी मुद्रा तत्र सत्यं पुनः पुनः ।। 44 ।।

 

भावार्थ :-  इडा व पिङ्गला नाड़ियों के बीच में स्थित सुषुम्ना नाड़ी में जब प्राणवायु का ग्रहण होता है तब वहाँ पर खेचरी मुद्रा स्थित होती है । यह बात पूर्ण रूप से सत्य है ।

 

 

सूर्याचन्द्रमसोर्मध्ये निरालम्बान्तरे पुनः ।

संस्थिता व्योमचक्रे सा या मुद्रा नाम खेचरी ।। 45 ।।

 

भावार्थ :- एक बार फिर जो इडा व पिङ्गला नाड़ियों के बीच में अर्थात् सुषुम्ना नाड़ी में बिना किसी की सहायता के जो व्योमचक्र ( आकाश में ) स्थित है । वह खेचरी मुद्रा है ।

 

 

सोमाद्यत्रोदिता धारा साक्षात् सा शिववल्लभा ।

पूरयेदतुलां दिव्यां सुषुम्नां पश्चिमे मुखे ।। 46 ।।

 

भावार्थ :- सोममण्डल अर्थात् चन्द्र नाड़ी से बहने वाली धारा साक्षात भगवान शिव की प्रिय है । उस सोमधारा को पीछे के मार्ग से अर्थात् मेरुदण्ड के माध्यम से सुषुम्ना नाड़ी में भर देना चाहिए ।

 

 

पुरस्ताच्चैव पूर्येत निश्चिता खेचरी भवेत् ।

अभ्यस्ता खेचरी मुद्राप्युन्मनी सम्प्रजायते ।। 47 ।।

 

भावार्थ :- इस प्रकार उस सोमधारा को सुषुम्ना नाड़ी में भर देने पर निश्चित रूप से खेचरी मुद्रा सिद्ध होती है । इस प्रकार इस खेचरी मुद्रा के अभ्यास से उन्मनी अर्थात् समाधि की सिद्धि होती है ।

 

 

भ्रुवोर्मध्ये शिवस्थानं मनस्तत्र विलीयते ।

ज्ञातव्यं तत्पदं तुर्यं तत्र कालो न विद्यते ।। 48 ।।

 

भावार्थ :- दोनों भौहों के बीच में जो स्थान होता है उसे भगवान शिव का स्थान कहा गया है । जिसे तन्त्र की भाषा में आज्ञा चक्र कहते हैं । साधक को अपना मन वहाँ पर विलीन अर्थात् स्थिर कर देना चाहिए । वहाँ पर काल का बोध ( मृत्यु ) अथवा ज्ञान नहीं होता । जिससे साधक मृत्यु को जीत कर समाधि की प्राप्ति कर लेता है ।

 

 

अभ्यसेत् खेचरीं तावद्यात् स्याद्योगनिद्रित: ।

सम्प्राप्तयोगनिद्रस्य कालो नास्ति कदाचन ।। 49 ।।

 

भावार्थ :- साधक को इस खेचरी मुद्रा का अभ्यास तब तक करना चाहिए जब तक कि वह योगनिद्रा ( समाधि ) को  प्राप्त नहीं कर लेता । जैसे ही साधक को योगनिद्रा की प्राप्ति ( समाधि ) हो जाती है । वैसे ही उसे काल ( मृत्यु ) का कोई डर नहीं रहता ।

 

 

निरालम्बं मन: कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ।

स बाह्याभ्यन्तरे व्योम्नि घटवत्तिष्ठति ध्रुवम् ।। 50 ।।

 

भावार्थ :- जब साधक अपने मन को सभी प्रकार के विचारों से मुक्त कर देता है और साथ ही मन के सभी प्रकार के संकल्प- विकल्पों को रोक देता है । तब साधक बाहर और भीतर से ठीक उसी प्रकार से स्थिर हो जाता है । जैसे कि घड़ा एक जगह पर स्थिर रहता है ।

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  1. ॐ गुरुदेव*
    शांभवी एवं खेचरी मुद्रा की बहुत ही उत्तम व्याख्या की है आपने।
    अस्तु आपको हृदय से आभार।

  2. खेचरिमुद्दरा का हठयोग प्रदीपिका अनुसार शब्द सह समजती अवम वर्णन। ????????????

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