शाम्भवी मुद्रा वर्णन

 

वेदशास्त्रपुराणानि सामान्यगणिका इव ।

एकैक शाम्भवी मुद्रा गुप्ता कुलवधूरिव ।। 35 ।।

 

भावार्थ :- वेद, शास्त्र और पुराण आदि ग्रन्थ सामान्य व आसानी से प्राप्त होने वाले हैं । लेकिन शाम्भवी मुद्रा ही एकमात्र कुलवधू ( अच्छे परिवार की बहू ) के समान गुप्त होती है ।

 

विशेष :- इस श्लोक में सामान्य गणिका शब्द का प्रयोग किया गया है । जिसमें गणिका का सामान्य अर्थ वेश्या होता है । लेकिन इस ग्रन्थ में इसका अर्थ वेश्या नहीं है । यहाँ गणिका का अर्थ कहीं पर भी उपलब्ध होने वाला है । वेश्या को भी आसानी से कहीं पर भी उपलब्ध होने वाली माना जाता है । इसी कारण कुछ भाष्यकारों ने तो अपने अनुवाद में इसे वेश्या ही सम्बोधित किया है और कुछों ने इसका अनुवाद न करके गणिका शब्द को ही अपने अनुवाद में प्रयोग किया है । यहाँ पर स्वामी स्वात्माराम वेद, शास्त्रों व पुराणों को वेश्या की संज्ञा नहीं दे सकते । क्योंकि उनके पूरे ग्रन्थ में कहीं पर भी इस प्रकार की शब्दावली का प्रयोग नहीं किया गया है । अतः यहाँ पर गणिका शब्द का अर्थ है जो कहीं पर भी उपलब्ध हो जाए । इसका एक तर्क यह भी बनता है कि 14 वीं शताब्दी में वेद, शास्त्र व पुराणों का सभी जगह पर उपलब्ध होना एक सामान्य बात थी । आज वर्तमान समय में यह प्रमाण सही नहीं बैठता । लेकिन उस समय पर यह प्रमाण बिलकुल सही बैठता है । कुछ बातें कल प्रमाणिक थी जो आज प्रमाणिक नहीं हैं । कुछ बातें आज के समय में प्रमाणिक है लेकिन हो सकता है कि वो भविष्य में प्रमाणिक न रहें । इसलिए कुछ व्यक्ति काल भेद का अन्तर नहीं कर पाते हैं । जिसके कारण इस प्रकार की गलत धारणाएँ फैलती हैं ।

 

 शाम्भवी विधि

अन्तर्लक्ष्यं बहिर्दृष्टिर्निमेषोन्मेषवर्जिता ।

एषा सा शाम्भवी मुद्रा वेदशास्त्रेषु गोपिता ।। 36 ।।

 

भावार्थ :- शाम्भवी मुद्रा में साधक के दोनों नेत्र ( आँखें ) खुली रहती हैं । लेकिन वह स्थिर होती हैं अर्थात् साधक आँखें खोलकर भी बाहर की ओर नहीं देखता । उसका लक्ष्य अन्दर की ओर ही होता है । वेद और शास्त्रों में यह विद्या गुप्त रूप से बताई गई है ।

 

 

अन्तर्लक्ष्यविलीनचित्तपवनो योगी यदा वर्तते दृष्टया निश्चलतारया बहिरध: पश्यन्नपश्यन्नपि ।

मुद्रेयं खलु शाम्भवी भवति सा लब्धा प्रसादाद् गुरो: शून्याशून्यविलक्षणं स्फुरति तत्तत्त्वं परं शाम्भवम् ।। 37 ।।

 

भावार्थ :- जब योगी साधक अन्तर्लक्ष्य अर्थात् अन्दर की ओर लक्ष्य का निर्धारण करके अपने चित्त व प्राण की गति को नियंत्रित कर लेता है । तब वह बाहर व नीचे की ओर देखते हुए भी बाहर व नीचे नहीं देखता है । यह अवस्था शाम्भवी मुद्रा की होती है जो केवल गुरु की कृपा से ही मिलती है । इस अवस्था में योगी का चित्त शून्य व अशून्य दोनों ही स्थितियों से भिन्न उस परमात्मा में स्थित होता है ।

 

 

श्री शाम्भव्याश्च खेचर्या अवस्था धामभेदत: ।

भवेच्चित्तलयानन्द: शून्ये चित्सुखरूपिणि ।। 38 ।।

 

भावार्थ :- श्री शाम्भवी मुद्रा व खेचरी मुद्रा के स्थान व अवस्था दोनों में ही अन्तर होता है । लेकिन शून्य अवस्था में चित्त का लय होने पर दोनों में ही चित्त में विशेष प्रकार के आनन्द का अनुभव होता है ।

 

 

तारे ज्योतिषी संयोज्य किञ्चिदुन्नमयेद् भ्रुवौ ।

पूर्वयोगं मनो युञ्जन्नुन्मनीकारक: क्षणात् ।। 39 ।।

 

भावार्थ :- भ्रुमध्य में स्थित आज्ञाचक्र में मन को स्थिर करके अपनी दोनों भौहों ( दोनों आँखों के बीच का स्थान ) को थोड़ा ऊपर की ओर उठाएं । इसके बाद साधक पहले से बताई गई विधि के अनुसार अपने मन व प्राण को स्थिर करके शीघ्रता से समाधि की अवस्था को प्राप्त कर लेता है ।

 

 

केचिदागमजालेन केचिन्निगमसङ्कुलै: ।

केचित्तर्केण मुह्यन्ति नैव जानन्ति तारकम् ।। 40 ।।

 

भावार्थ :- कुछ योगी साधक तो आगम ( शिव द्वारा उपदेशित ग्रन्थ ) के जाल में व कुछ साधक वैदिक वाङ्गमय के आपसी चक्रों में पड़ जाते हैं । वहीं कुछ आपसी तर्क- वितर्कों में ही उलझकर मार्ग से भटक जाते हैं । वे उस मुक्ति प्रदान करने वाली उन्मनीकला ( समाधि ) को जान ही नहीं पाते हैं ।

 

 

 अर्धोन्मीलितलोचन: स्थिरमना नासाग्रदत्तेक्षण: चन्द्रर्कावपि लीनतामुपनयन्निस्पन्दभावेन य: ।

ज्योतीरूपमशेषबीजमखिलं देदीप्यमानं परम् तत्त्वं तत्पदमेति वस्तु परमं वाच्यं किमत्राधिकम् ।। 41 ।।

 

भावार्थ :- जो योग साधक अपने दोनों नेत्रों को आधा खोलकर, मन को एक जगह पर स्थिर करके, अपनी दृष्टि को नासिका के अग्र भाग पर केन्द्रित करके, पूर्ण रूप से स्थिर होकर व जिसने इडा व पिङ्गला नाड़ियों में चलते हुए प्राण को नियंत्रित कर लिया हो । वह साधक ज्योति स्वरूप से भी ज्यादा दीप्तिमान जिसे परमात्मा कहा जाता है । उसे देखता हुआ उसी परमपद को प्राप्त कर लेता है ।

 

दिवा न पूजयेल्लिङ्गं रात्रौ चैव न पूजयेत् ।

सर्वदा पूजयेल्लिङ्गं दिवारात्रिनिरोधत: ।।42 ।।

 

भावार्थ :- साधक को लिङ्ग ( परमात्मा ) की उपासना या आराधना न ही तो दिन में ( पिङ्गला नाड़ी में ) करना चाहिए और न ही रात्रि में ( इडा नाड़ी में ) बल्कि उसे दिन व रात ( इडा व पिङ्गला ) दोनों का ही निरोध होने पर ( सुषुम्ना नाड़ी के चलने पर ही ) लिङ्ग ( परमात्मा ) की उपासना अथवा आराधना करनी चाहिए ।

 

विशेष :- इस श्लोक में पिङ्गला व इडा को ही क्रमशः दिन व रात कहकर सम्बोधित किया गया है । पिङ्गला का अर्थ है सूर्य नाड़ी चूँकि सूर्य दिन में ही निकलता है और सूर्य ही पिङ्गला नाड़ी का प्रतिनिधित्व करता है । इसी प्रकार इडा का अर्थ है चन्द्र नाड़ी चूँकि चन्द्रमा रात में ही निकलता है और चन्द्रमा ही इडा नाड़ी का प्रतिनिधित्व करता है । इसलिए यहाँ पर पिङ्गला व इडा को क्रमशः दिन व रात कहा गया है । तभी कहा गया है कि दोनों का निरोध होने पर ही अर्थात् इडा व पिङ्गला का निरोध होने पर ही लिङ्ग की उपासना करनी चाहिए । इसका तात्पर्य यह हुआ कि सुषुम्ना नाड़ी के क्रियाशील होने पर ही उपासना करनी चाहिए । उसके अतिरिक्त उपासना करने से वह सिद्ध नहीं होती है ।

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  1. प्रणाम आचार्यवर ,

    मेरे मत से वेद शास्त्र पुराण को ग्रंथकार द्वारा गणिका कहने का तात्पर्य केवल शाम्भवी मुद्रा की विशेषता बताना ही है ।
    वास्तव में वेद शास्त्र पुराण से ज्ञान तो होता है परंतु साधनमार्ग में गुरूपदिष्ट मार्ग से शीघ्र सिद्धि होती है । गरुड़ पुराण में कहा है कि

    अनेकांनी शस्त्राणि स्वल्पायु विघ्न कोट्य ।।

    शास्त्र अनेक है और मनुष्य की आयु कम है इसलिए कल्याण चाहने वाले साधक शास्त्र में ना उलझ कर गुरु के सानिध्य में जाएं ।
    यह मुद्रा मुक्ति दायिनी है और इसे वेद शास्त्रों से नहीं अपितु गुरु सानिध्य से प्राप्त किया जा सकता है ।
    साभार
    आप का अनुज ।

  2. ॐ गुरुदेव*
    शांभवी मुद्रा का अत्यंत सुन्दर वर्णन प्रस्तुत किया है आपने।
    आपको हृदय से आभार।

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