प्रनष्टश्वासनि:श्वास: प्रध्वस्तविषयग्रह: ।

निश्चेष्टो निर्विकारश्च लयो जयति योगिनाम् ।। 31 ।।

 

भावार्थ :- जिस साधक के प्राणों की गति समाप्त हो गई है अर्थात् जिसने प्राणायाम द्वारा अपने श्वास- प्रश्वास को पूरी तरह से नियंत्रित कर लिया है । जिस साधक की इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषयों का पूर्ण रूप से त्याग हो चुका है अर्थात् जिस की इन्द्रियाँ पूर्ण रूप से उसके नियंत्रण में हो चुकी हैं । जिसकी सभी इच्छाएँ समाप्त हो चुकी हैं । जो सभी विकारों से रहित हो गया है । ऐसे योगियों को लय की प्राप्ति होती है ।

 

 

उच्छि न्नसर्व सङ्कल्पो नि:शेषाशेषचेष्टित: ।

स्वावगम्यो लय: कोऽपि जायते वागगोचर: ।। 32 ।।

 

भावार्थ :- जिस साधक के सभी संकल्प समाप्त हो गए हैं और कोई भी इच्छा शेष न बची हो अर्थात् जिसकी सभी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हैं । ऐसी लय की अवस्था को स्वयं के द्वारा ही अनुभूत ( महसूस ) किया जा सकता है । वाणी द्वारा इसका वर्णन नहीं किया जा सकता ।

 

 

यत्र दृष्टिर्लयस्त्र भूतेन्द्रियसनातनी ।

सा शक्तिर्जीवभूतानां द्वे अलक्ष्ये लयं गते ।। 33 ।।

 

भावार्थ :- जहाँ पर साधक की दृष्टि एकाग्र होती है । वहीं पर लय का स्थान होता है ।

वहाँ पर सभी पंच महाभूतों ( आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथ्वी ) व इन्द्रियों की परम्परागत शक्ति होती है । उस शक्ति में जीवात्मा के सभी उद्देश्य विलीन हो जाते हैं ।

 

 

लयो लय इति प्राहु: कीदृशं लयलक्षणम् ।

अपुनर्वासनोत्थानाल्लयो विषयविस्मृति: ।।  34 ।।

 

भावार्थ :- कुछ योग साधक मात्र लय- लय कहते रहते हैं । लेकिन लय होता क्या है ? यह उनको नहीं पता होता । जहाँ पर सभी वासनाएँ पूरी तरह से विलीन हो जाती हैं अर्थात् जिस अवस्था में कभी भी वासना प्रबल नहीं होती । जहाँ किसी विषय की कोई भी स्मृति शेष नहीं बचती है । वह स्थिति लय की होती है ।

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