तत्रैकनाशादपरस्य नाश: एकप्रवृत्तेरपरप्रवृत्ति: ।

अध्वस्तयोश्चेन्द्रियवर्गवृत्ति: प्रध्वस्तयोर्मोक्षपदस्य सिद्धि: ।। 25 ।।

 

भावार्थ :- इन दोनों में से ( मन व प्राण ) यदि एक नष्ट ( उनकी गतिशीलता  ) हो जाता है तो दूसरा भी स्वयं ही नष्ट हो जाता है अर्थात् दूसरे की गति का नाश भी अपने आप ही हो जाता है । ठीक इसी प्रकार एक के गतिशील होने पर दूसरा भी गतिशील हो जाता है । जब यह दोनों ( मन व प्राण ) निरन्तर गतिशील रहते हैं तो हमारी इन्द्रियाँ भी अपने – अपने विषयों में प्रवृत्त रहती हैं । लेकिन जैसे ही यह दोनों गतिविहीन हो जाते हैं अर्थात् जब इनमें स्थिरता आ जाती है । तब साधक को मोक्ष की प्राप्ति होती है ।

 

 

रसस्य मनसश्चैव चञ्चलत्वं स्वभावतः ।

रसो बद्धो मनो बद्धं किं न सिद्धयति भूतले ।। 26 ।।

 

भावार्थ :- मन व पारा ( पारा एक धातु है ) दोनों की प्रकृति ( स्वभाव )  चंचल होते हैं अर्थात् यह दोनों मूल रूप से चंचल होते हैं । यदि पारा धातु को बांध लिया जाए और मन को एक जगह पर स्थिर कर दिया जाए तो उस साधक के लिए ( जिसने मन को स्थिर कर लिया है ) इस पूरी पृथ्वी पर ऐसा क्या है जिसे वह प्राप्त नहीं कर सकता ? अर्थात् इस पूरी पृथ्वी पर उसके लिए सबकुछ सम्भव हो जाता है ।

 

 

मुर्च्छितो हरते व्याधीन् मृतो जीवयति स्वयम् ।

बद्ध: खेचरतां धत्ते रसो वायुश्च पार्वति ।। 27 ।।

 

भावार्थ :- हे पार्वती ! पारा धातु को शोधित करने पर ( उसकी भस्म बना देने से ) और प्राण की गति को मन्द करने से यह दोनों ही रोगों को दूर करने का काम करते हैं । पारा धातु स्वयं मरके दूसरों को जीवन प्रदान करता है ( जब पारा धातु को तीव्र अग्नि में भस्म किया जाता है तब वह अपने वास्तविक स्वरूप को खो देता है अथवा उसकी स्वयं की सत्ता समाप्त हो जाती है ) । पारा बांधे जाने से और प्राण का निरोध होने पर वह ऊर्ध्वगामी होकर साधक को आकाश गमन की सिद्धि प्रदान करते हैं ।

 

 

मन: स्थैर्ये स्थिरो वायुस्ततो बिन्दु: स्थिरो भवेत् ।

बिन्दुस्थैर्यात् सदा सत्त्वं पिण्डस्थैर्यं प्रजायते ।। 28 ।।

 

भावार्थ :- मन के स्थिर हो जाने से हमारा प्राण भी स्थिर हो जाता है । जिससे वीर्य भी शरीर में स्थिर हो जाता है और वीर्य के शरीर में स्थिर होने से सदा शक्ति और स्थिरता बनी रहती है ।

 

इन्द्रियाणां मनो नाथो मनोनाथस्तु मारुत: ।

मारुतस्य लयो नाथ: स लयो नादमाश्रित: ।। 29 ।।

 

भावार्थ :- हमारी सभी इन्द्रियों को नियंत्रित करने वाला अथवा उनका स्वामी मन है और उस मन को नियंत्रित करने वाला अथवा उसका स्वामी प्राण है । उस प्राण को नियंत्रित करने वाला लय होता है और वह लय नाद पर आश्रित होता है अर्थात् नाद लय का स्वामी होता है ।

 

सोऽयमेवास्तु मोक्षाख्यो मास्तु वापि मतान्तरे ।

मन: प्राणलये कश्चिदानन्द: सम्प्रवर्तते ।। 30 ।।

 

भावार्थ :- कुछ आचार्यों के मतानुसार इस लय को ही मोक्ष नाम से जाना जाता है अर्थात् लय को ही मोक्ष कहा गया है । वहीं कुछ आचार्यों के अनुसार ऐसा नहीं माना जाता । लेकिन मन और प्राण दोनों के लयबद्ध होने से साधक को एक आनन्द की अनुभूति होती है ।

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  1. आचार्य जी आपने चलं वाते चले चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत्! बहोत सुंदर पद्धती से समझाया हैं. धन्यवाद .

  2. लक्ष्मी नारायण योग शिक्षक पतंजलि योगपीठ हरिव्दार ।l says:

    ऊॅ ! सर जी । बहुत ही अच्छे तरीके से आप ने समझाया ।पर प्राण को नियन्त्रित करने वाला लय है तो लय की सिध्दी कैसे होगी कृपया समझाने का कष्ट कीजिए सर ।

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