सभी बहत्तर हजार ( 72000 ) नाड़ियाँ में सुषुम्ना की महत्ता

 

द्वासप्तति सहस्त्राणि नाडीद्वाराणि पञ्जरे ।

सुषुम्ना शाम्भवी शक्ति: शेषास्त्वेव निरर्थका: ।। 18 ।।

 

भावार्थ :- इस मानव शरीर में कुल बहत्तर हजार ( 72000 ) नाड़ियाँ है । इनमें से सुषुम्ना नाड़ी ही सबसे प्रमुख है जिसे शाम्भवी शक्ति भी कहते हैं । बाकी की सभी नाड़ियों का कोई विशेष महत्त्व नहीं है । वह एक प्रकार से निरर्थक अर्थात् महत्त्वहीन हैं ।

 

 

वायु: परिचितो यस्मादग्निना सह कुण्डलीम् ।

बोधयित्वा सुषुम्नायां प्रविशेदनिरोधत: ।। 19 ।।

सुषुम्नावाहिनि प्राणे सिद्घयत्येव मनोन्मनी ।

अन्यथात्वितराभ्यासा: प्रयासायैव योगिनाम् ।। 20 ।।

 

भावार्थ :- चूँकि अच्छे अभ्यास से भली प्रकार से वश में किया हुआ प्राण अग्नि तत्त्व के साथ मिलकर कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करके बिना किसी प्रकार की बाधा के सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कर जाता है । इस प्रकार जब साधक का प्राण सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करके ऊर्ध्वगामी होता है तभी मनोन्मनी अवस्था अर्थात् समाधि की सिद्धि होती है । इसके अतिरिक्त साधक के अन्य सभी प्रकार के अभ्यास केवल प्रयास मात्र होते हैं अर्थात् उनसे किसी भी प्रकार की सिद्धि प्राप्त नहीं होती ।

 

पवनो बध्यते येन मनस्तेनैव बध्यते ।

मनश्च बध्यते येन पवनस्तेन बध्यते ।। 21 ।।

 

भावार्थ :- जिस भी साधक ने पवन अर्थात् अपने प्राणवायु को वश में कर लिया है । वही साधक मन को भी अपने वश में कर सकता है । इस प्रकार जो मन को वश में कर लेता है । वह प्राण को भी वश में कर लेता है ।

 

विशेष :- ऊपर वर्णित श्लोक व दूसरे अध्याय के दूसरे श्लोक में भी इस बात का स्प्ष्ट रूप से वर्णन किया गया है कि प्राण व मन एक दूसरे के पूरक हैं । जैसे ही प्राण को वश में किया जाता है वैसे ही यह मन अपने आप वश में हो जाता है । इसके लिए अलग से कोई प्रयास नहीं करना पड़ता ।

 

 

हेतुद्वयं तु चित्तस्य वासना च समीरण: ।

तयोर्विनष्ट एकस्मिंस्तौ द्वावपि विनश्यत: ।। 22 ।।

 

भावार्थ :- चित्त के चंचल या गतिमान होने के दो प्रमुख कारण होते हैं । एक वासना और दूसरा प्राण । इन दोनों कारणों में से यदि एक कारण भी नष्ट हो जाता है तो दूसरा भी अपने आप ही नष्ट हो जाता है ।

 

विशेष :- ऊपर श्लोक में चित्त की चंचलता के दो कारणों में एक कारण प्राण को बताया गया है । यहाँ पर इसका अर्थ यह नहीं है कि प्राण के नष्ट हो जाने से ही चित्त की चंचलता नष्ट होगी । बल्कि यहाँ पर इसका अभिप्राय यह है कि जो प्राण की अनियंत्रित अवस्था होती है । वह चित्त की चंचलता का कारण है न कि प्राण । यदि ऐसा होता तो प्राण के नष्ट होने पर तो जीवन ही समाप्त हो जाएगा । अतः यहाँ पर प्राण का अर्थ प्राण की अनियंत्रित गति समझना चाहिए । यही सूत्रकार का कथन है ।

 

 

मनो यत्र विलीयेत पवनस्तत्र लीयते ।

पवनो लीयते यत्र मनस्तत्र विलीयते ।। 23 ।।

 

भावार्थ :- जब साधक का मन सभी विषयों का त्याग कर देता है तब वह लीन अर्थात् स्थिर हो जाता है । तब मन के लीन अथवा स्थिर हो जाने से वह प्राण भी स्थिर हो जाता है ।

 

 

दुग्धाम्बुवत् सम्मिलितावुभौ तौ तुल्यक्रियौ मानसमारुतौ हि ।

यतो मरुत्तत्र मन: प्रवृत्तिर्यतो मनस्तत्र मरुत्प्रवृत्ति: ।। 24 ।।

 

भावार्थ :- जिस प्रकार दूध और पानी दोनों के मिश्रण अर्थात् दोनों को एक साथ मिला देने से वह दोनों एक ही रूप में अपना कार्य करते हैं । ठीक उसी प्रकार यह मन व प्राण भी एक साथ मिलकर कार्य करते हैं । जैसे ही साधक का प्राण क्रियाशील होता है वैसे ही उसका मन भी क्रियाशील हो जाता है । ये दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं । जिस प्रकार की दशा हमारे प्राण की होती है । ठीक वैसी ही दशा हमारे मन की हो जाती है । ठीक इसी तरह जो अवस्था हमारे मन की होती है । वही अवस्था हमारे प्राण की हो जाती है ।

 

 

विशेष :- इस श्लोक में दूध व पानी के मिश्रण का उदाहरण इसी लिए दिया गया है ताकि सभी विद्यार्थी आसानी से इनके ( प्राण व मन ) क्रियाकलापों को समझ सकें । जिस प्रकार दूध में पानी या पानी में दूध मिला दिया जाता है तो वह दोनों एक ही रूप में अपना काम करते हैं अलग -अलग नहीं । इसी प्रकार प्राण व मन एक दूसरे के साथ मिलकर कार्य करते हैं अलग- अलग नहीं ।

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