उत्पन्नशक्तिबोधस्य त्यक्तनि: शेषकर्मण: ।
योगिन: सहजावस्था स्वयमेव प्रजायते ।। 11 ।।
भावार्थ :- कुण्डलिनी शक्ति के उत्पन्न होने अर्थात् जागृत होने व सभी कर्मों का त्याग ( सभी सकाम कर्म अर्थात् जो कर्म बन्धन का कारण बनते हैं ) करने से योगी की समाधि अपने आप ही लग जाती है । उसके लिए उसे किसी अन्य प्रयास की आवश्यकता नहीं रहती ।
सुषुम्नावाहिनि प्राणे शून्ये विशति मानसे ।
तदा सर्वाणि कर्माणि निर्मूलयति योगवित् ।। 12 ।।
भावार्थ :- साधक का प्राण जब सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कर लेता है तो उसका मन भी शून्यभाव ( मन का विचारों से रहित होना ) को प्राप्त हो जाता है । तब साधक सभी प्रकार के क्रियाकलापों से पूरी तरह से मुक्त हो जाता है ।
अमराय नमस्तुभ्यं सोऽपि कालस्त्वया जित: ।
पतितं वदने यस्य जगदेतच्चराचरम् ।। 13 ।।
भावार्थ :- जिस अमर योगी ने इस सारे जगत को अपने वश में रखने वाली मृत्यु को भी जीत लिया है । ऐसे श्रेष्ठ योगी को नमस्कार ।
चित्ते समत्वमापन्ने वायौ व्रजति मध्यमे ।
तदामरोली वज्रोली सहजोली प्रजायते ।। 14 ।।
भावार्थ :- साधक का चित्त समभाव ( समता ) को प्राप्त होने पर उसका प्राणवायु सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कर लेता है । इस प्रकार प्राणवायु के सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करने के बाद ही साधक की अमरोली, वज्रोली व सहजोली क्रियाएँ सिद्ध होती है ।
मोक्ष प्राप्ति
ज्ञानं कुतो मनसि सम्भवतीह तावत् प्राणोऽपि जीवति मनो म्रियते न यावत् ।
प्राणो मनो द्वयमिदं विलयं नयोद्यो मोक्षं स गच्छति नरो न कथञ्चिदन्य: ।। 15 ।।
भावार्थ :- जब तक साधक के प्राण का निरन्तर प्रवाह होता रहता है तब तक उसका मन भी शान्त नहीं होता और मन के शान्त न होने से उसे यथार्थ ज्ञान ( वास्तविक ज्ञान ) की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? जो साधक अपने प्राणों व मन का पूरी तरह से निरोध कर लेता है । उसे ही मोक्ष की प्राप्ति होती है । अन्य किसी प्रकार से मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है ।
ज्ञात्वा सुषुम्ना सम्भेदं कृत्वा वायुं च मध्यगम् ।
स्थित्वा सदैव सुस्थाने ब्रह्मरण्ध्रे निरोधयेत् ।। 16 ।।
भावार्थ :- साधक को सदा सुन्दर स्थान पर बैठकर सुषुम्ना नाड़ी का अच्छी प्रकार से भेदन करके प्राणवायु को सुषुम्ना नाड़ी के अन्दर प्रवेश करवाकर ब्रह्मरन्ध्र में उसका निरोध करना चाहिए ।
सूर्याचन्द्रमसौ धत्त: कालं रात्रिन्दिवात्मकम् ।
भोक्त्री सुषुम्ना कालस्य गुह्यमेतदुदाहृतम् ।। 17 ।।
भावार्थ :- दिन और रात को सूर्य और चन्द्रमा धारण ( सूर्य और चन्द्रमा से ही दिन व रात का आभास होता है ) करते हैं । सुषुम्ना नाड़ी उस काल ( दिन व रात के समय ) को भोगने वाली है । इसे अत्यन्त गुप्त रहस्य कहा गया है ।
प्रथम श्लोक के त्यक्तानि शब्द को दुरुस्त करें ।
धन्यवाद ।
विनोद शर्मा जी श्लोक को पढ़ने के लिए आपका धन्यवाद ।
हठ प्रदीपिका लोनावला व हठ योगप्रदीपिका चौखम्बा संस्कृति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली के अनुसार त्यक्तनि: शब्द ही सही है । लेकिन यदि आपके पास इससे सम्बंधित कोई प्रमाणिक तथ्य है तो मुझे भेजें ताकि मैं इसे दुरस्त कर सकूं । आपके लिए दोनों पुस्तकों की फोटो भेज रहा हूँ ।
धन्यवाद ।
धन्यवाद।
ॐ गुरुदेव*
आपका हृदय से अभिनन्दन।