भगवान शिव को नमस्कार

 

नमः शिवाय गुरवे नादबिन्दुकलात्मने ।

निरञ्जनपदं याति नित्यं यत्र परायण: ।। 1 ।।

 

भावार्थ :- जिस परम गुरु के प्रति निरन्तर समर्पित भाव से भक्ति करने मात्र से साधक को परमपद अर्थात् समाधि की प्राप्ति हो जाती है । उन नाद बिन्दु व कला स्वरूप गुरु भगवान शिव को नमन अर्थात् प्रणाम है ।

 

 

समाधि वर्णन

 

अथेदानीं प्रवक्ष्यामि समाधिक्रममुत्तमम् ।

मृत्युध्नं च सुखोपायं ब्रह्मानन्दकरं परम् ।। 2 ।।

 

भावार्थ :- अब इसके बाद मैं मृत्यु का नाश करने वाली, सुख प्रदान करवाने वाली व ब्रह्मानन्द का अनुभव करवाने वाली समाधि की उत्तम विधि का उपदेश करूँगा ।

 

 

राजयोग: समाधिश्च उन्मनी च मनोन्मनी ।

अमरत्वं लयस्तत्त्वं शून्याशून्यं परं पदम् ।। 3 ।।

अमनस्कं तथा द्वैतं निरालम्बं निरञ्जनम् ।

जीवनमुक्तिकश्च सहजा तुर्या चेत्येकवाचका: ।। 4 ।।

 

भावार्थ :- राजयोग, समाधि, उन्मनी अवस्था, मनोन्मनी अवस्था, अमरत्व, लय, तत्त्व, शून्याशून्य, परमपद, अमनस्क, अद्वैत, निरालम्बन, निरञ्जन, जीवन मुक्ति, सहजा अवस्था तथा तुर्या अवस्था इन सभी के सभी शब्दों का एक ही अर्थ होता हैं । दूसरे अर्थ में हम इनको एक दूसरे के पर्यायवाची भी कह सकते हैं ।

 

 

विशेष :-  जहाँ पर भी उपर्युक्त शब्दों में से किसी शब्द का प्रयोग किया जाएगा । उसका अर्थ समाधि ही माना जाएगा । इन सभी शब्दों का प्रयोग समाधि के लिए ही किया जाता है ।

 

 

योग अथवा समाधि की परिभाषा

 

सलिले सैन्धवं यद्वत् साम्यं भजति योगत: ।

तथात्ममनसोरैक्यं समाधिरभिधीयते ।। 5 ।।

 

भावार्थ :- जिस प्रकार पानी में नमक डालने से वह नमक पानी के साथ घुलकर पानी के समान ही हो जाता है । ठीक उसी प्रकार आत्मा और मन की एकरूपता अर्थात् आत्मा और मन के आपस में मिलने को समाधि की अवस्था कहते हैं ।

 

विशेष :- हठयोग के अनुसार इस श्लोक को योग अथवा समाधि की परिभाषा के रूप में प्रयोग किया जाता है । जिस प्रकार योगश्चितवृत्ति निरोध: को योगदर्शन के अनुसार व योग: कर्मसु कौशलम् को गीता के अनुसार योग की परिभाषा के रूप में प्रयोग किया जाता है । ठीक उसी प्रकार हठयोग के अनुसार इस श्लोक को योग की परिभाषा के रूप में प्रयोग किया जाता है ।

 

 

यदा संक्षीयते प्राणो मानसं च प्रलीयते ।

तदा समरसत्वं च समाधिरभिधीयते ।। 6 ।।

 

भावार्थ :- प्राणों की गति मन्द होने से मन भी गतिविहीन अर्थात् स्थिर हो जाता है । इन दोनों ( प्राण व मन ) की एकरूपता ( एक होने ) को ही समाधि कहते हैं ।

 

 

 तत्समं च द्वयोरैक्यं जीवात्मपरमात्मनो: ।

प्रनष्टसर्वसङ्कल्प: समाधि: सोऽभिधीयते ।। 7 ।।

 

भावार्थ :- जीवात्मा और परमात्मा की एकरूपता ( एक होने ) होने से साधक के सभी संकल्प अर्थात् सभी इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं । इस अवस्था को भी समाधि कहते हैं ।

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