भ्रामरी प्राणायाम विधि व लाभ

 

वेगाद् घोषं पूरकं भृङ्गनादम् भृङ्गीनादं रेचकं मन्दमन्दम् ।

योगीन्द्राणामेवमभ्यासयोगात् चित्ते जाता काचिदानन्दलीला ।। 68 ।।

 

भावार्थ :- भ्रमर ( भवरें ) की तरह पूरी तेज गति से गुंजन ( आवाज ) करते हुए श्वास को अन्दर भरें । इसके बाद धीरे- धीरे भ्रमरी ( भंवरी ) की तरह गुंजन करते हुए श्वास को बाहर निकालना भ्रामरी प्राणायाम कहलाता है । इस प्रकार का अभ्यास करने से श्रेष्ठ योगियों के चित्त में एक विशेष प्रकार का आनन्द प्रदान करवाने वाली लीला का अनुभव होता है ।

 

 

विशेष :- इस श्लोक में भ्रमर शब्द भंवरे के लिए व भ्रमरी शब्द भंवरी के लिए प्रयोग किया गया है ।

 

मूर्च्छा प्राणायाम विधि व लाभ

 

पूरकान्ते गाढतरं बद्धवा जालन्धरं शनै: ।

रेचयेन्मूर्च्छनाख्येयं मनोमूर्च्छा सुखप्रदा ।। 69 ।।

 

भावार्थ :- श्वास को अन्दर भरने के बाद मजबूती के साथ जालन्धर बन्ध लगाना चाहिए । इसके बाद धीरे- धीरे श्वास को बाहर निकालने को मूर्च्छा प्राणायाम कहते हैं । मन की यह मनोमूर्च्छा साधक को सुख की अनुभूति करवाने वाली होती है ।

 

 

प्लाविनी प्राणायाम विधि व लाभ

 

अन्त:प्रवर्तितोदारमारुतापूरितोदर: ।

पयस्यगाधेऽपि सुखात् प्लवते पद्मपत्रवत् ।। 70 ।।

 

भावार्थ :- जो साधक पेट के अन्दर ज्यादा से ज्यादा प्राणवायु को भर लेना प्लाविनी प्राणायाम कहलाता है । इसके अभ्यास से साधक गहरे जल ( पानी ) में भी सुखपूर्वक कमल के पत्ते की तरह तैरता रहता है ।

 

विशेष :- प्लाविनी प्राणायाम का लाभ भी परीक्षा की दृष्टि से आवश्यक है । इसके लिए पूछा जाता है कि ऐसा कौन सा प्राणायाम है जिसको करने से साधक गहरे पानी में भी कमल के पत्ते के समान तैरता रहता है ?

या ऐसा कौन सा प्राणायाम है जिसको करने से साधक जल में नहीं डूबता ?

इसका उत्तर प्लाविनी प्राणायाम ही है ।

 

प्लाविनी प्राणायाम हठप्रदीपिका में वर्णित सभी प्राणायामों ( कुम्भकों ) में अन्तिम कहा गया है । इसी के साथ कुम्भकों का वर्णन समाप्त हुआ ।

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