सीत्कारी प्राणायाम विधि व लाभ
सीत्कां कुर्यात्ततथा वक्त्रे घ्राणेनैव विजृम्भिकाम् ।
एवमभ्यासयोगेन कामदेवो द्वितीयक: ।। 54 ।।
भावार्थ :- मुख से सीत्कार अर्थात सी-सी की ध्वनि करते हुए वायु को अन्दर भरें और रेचक अर्थात श्वास को बाहर हमेशा नासिका से ही निकालना चाहिए । इस प्रकार के योग का अभ्यास करने से योगी साधक कामदेव के समान अर्थात देवताओं के समान सुन्दर व मनमोहक हो जाता है ।
उज्जायी की प्रशंसा व लाभ
योगिनीचक्रसम्मान्य: सृष्टिसंहारकारक: ।
न क्षुधा न तृषा निद्रा नैवालस्यं प्रजायते ।। 55 ।।
भावार्थ :- यह योगियों द्वारा अत्यंत प्रिय व सम्मानित प्राणायाम है । इसके करने से योगी विश्व का निर्माण व विनाश करने में सक्षम हो जाता है । उसे न ही तो भूख परेशान करती है और न ही प्यास । इसके अलावा उसके अन्दर कभी निद्रा व आलस्य का भाव नहीं आता है ।
भवेत् स्वच्छन्ददेहस्तु सर्वोपद्रववर्जित: ।
अनेन विधिना सत्यं योगिन्द्रों भूमिमण्डले ।। 56 ।।
भावार्थ :- इस तरह से सीत्कारी प्राणायाम का अभ्यास करने से योगी स्वच्छ शरीर अर्थात रोग रहित शरीर वाला हो जाता है व सभी प्रकार के उपद्रवों से रहित हो जाता है । इस प्रकार की विधि का पालन करने से वह साधक इस पूरी पृथ्वी पर सर्वश्रेष्ठ अथवा विख्यात योगी बन जाता है ।
जिह्वया वायुमाकृष्य पूर्ववत् कुम्भसाधनम् ।
शनकैर्घ्राणरन्ध्राभ्यां रेचयेत् पवनं सुधी: ।। 57 ।।
भावार्थ :- बुद्धिमान साधक को चाहिए कि वह जिह्वया अर्थात जीभ के बीच से प्राणवायु को अन्दर भरे । इसके लिए जीभ के दोनों किनारों को अन्दर की ओर मोड़ना पड़ेगा । तभी वायु जीभ के बीच से होकर शरीर के अन्दर प्रवेश करेगी । इसके बाद फिर पहले वाले प्राणायाम की तरह ही कुम्भक ( श्वास को अन्दर रोकने ) को लगाना चाहिए । फिर धीरे-धीरे प्राणवायु को नासिका के दोनों छिद्रों से बाहर निकाल दें । यह शीतली प्राणायाम कहलाता है ।
शीतली प्राणायाम के लाभ
गुल्मप्लीहादिकान् रोगान् ज्वरं पित्तं क्षुधां तृषाम् ।
विषाणि शीतली नाम कुम्भकोऽयं निहन्ति च ।। 58 ।।
भावार्थ :- शीतली नामक प्राणायाम के करने से साधक के सभी वायु विकार, तिल्ली का बढ़ना, बुखार, सभी पित्त सम्बन्धी दोषों को समाप्त कर देता है । भूख व प्यास की व्याकुलता को कम करता है और साथ ही शरीर में बनने वाले जहर के प्रभाव को भी समाप्त कर देता है ।
विशेष :- हठयोग के आसन, प्राणायाम व मुद्रा आदि के लाभों में आपको विष शब्द का प्रयोग बहुत बार मिलेगा । इस विष शब्द का अर्थ यहाँ पर सामान्य जहर बिलकुल भी नहीं है । कई विद्यार्थी इसे सामान्य जहर समझने की भूल कर लेते हैं । लेकिन यहाँ पर कहे गए विष शब्द का अर्थ विजातीय तत्त्वों से है । हमारे शरीर में गलत आहार ग्रहण करने से, ज्यादा आहार ग्रहण करने से या फिर ग्रहण किए गए आहार के न पचने से शरीर में कुछ ऐसे विषैले तत्त्व बन जाते हैं जो शरीर को हानि पहुँचाने का काम करते हैं । यहाँ पर उसी विष का वर्णन बार- बार किया गया है ।
आचार्य जी प्रणाम. बहोतही बढीया तरिका topic समझाने का. Om Shanti.
Dhyanwad guru ji????????
ऊॅ सर जी !बहुय अच्छी जानकारी मिल रही है ।
धन्यवाद ।
Very useful information,thank you sir
धन्यवाद।
आचार्य जी, श्लोक २/५५ में यहाँ उज्जयी प्राणायाम की प्रसंशा व लाभ लिखा है, क्या यह सही है या “सीतकारी प्राणायाम के लाभ व प्रसंशा” होना चाहिए?