प्राण व अपान की साधना का फल
अपानमूर्ध्वमुत्थाप्य प्राणं कण्ठादधो नयेत् ।
योगी जराविमुक्त: सन् षोडशाब्दवया भवेत् ।। 47 ।।
भावार्थ :- अपान वायु ( नीचे की वायु ) को ऊपर उठाकर और प्राण वायु को कण्ठ प्रदेश से नीचे की ओर ले जाने की साधना करने से बूढ़ा व्यक्ति भी अपने बुढ़ापे से मुक्त होकर सोलह ( 16 ) साल के युवक के समान हो जाता है ।
विशेष :- इस श्लोक में प्राण व अपान वायु के एकीकरण की बात कही गई है ।
सूर्यभेदी प्राणायाम
आसने सुखदे योगी बद्ध्वा चैवासनं तत: ।
दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवनं शनै: ।। 48 ।।
आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि कुम्भयेत् ।
तत: शनै: सव्यनाड्या रेचयेत् पवनं शनै: ।। 49 ।।
भावार्थ :- योगी साधक को कोई सुखदायी आसन बिछाकर, उसके ऊपर पद्मासन आदि ध्यानात्मक आसन में बैठकर अपनी दायीं नासिका से बाहर की वायु को इतना अन्दर भरें कि वह वायु बालों से लेकर नाखूनों तक पहुँच जाए । अर्थात बाहर की वायु को अधिक से अधिक अन्दर भरें । अन्दर भरने के बाद जितनी देर हो सके उस वायु को अन्दर ही रोके रखें । उसके बाद उस वायु को धीरे- धीरे बायीं नासिका से बाहर निकाल दें । यह सूर्यभेदी प्राणायाम कहलाता है ।
विशेष :- सूर्यभेदी प्राणायाम में विधि सदैव यही रहती है । इसी क्रम का साधक बार – बार अभ्यास करे । इसमें दायीं नासिका से ही श्वास को इसलिए लेते हैं क्योंकि दायीं नासिका सूर्य का प्रतिनिधित्व करती है ।
उच्च रक्तचाप, नकसीर, व हृदय रोगियों को इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए ।
सूर्यभेदी के लाभ
कपालशोधनं वातदोषध्नं कृमिदोषहृत् ।
पुनः पुनरिदं कार्यं सूर्यभेदनमुत्तमम् ।। 50 ।।
भावार्थ :- सूर्यभेदी प्राणायाम हमारे कपाल अर्थात मस्तिष्क प्रदेश को शुद्ध करता है, वात सम्बंधित ( वायु के कुपित होने से होने वाले रोग ) रोगों को समाप्त करता है व कृमि अर्थात पेट में उत्पन्न होने वाले कीड़ों को नष्ट करता है । इसलिए योगी साधक को इस सूर्यभेदी नामक उत्तम प्राणायाम का अभ्यास बार- बार करना चाहिए ।
Thanks sir
Thanku sir ??
Pranaam Sir! Thank you for the detailed explanation and also extra points added by you to make things more clear. We are benefiting by your experience.
ॐ गुरुदेव*
आपका हृदय से आभार।
धन्यवाद।