आठ प्रकार के कुम्भक ( प्राणायाम )

 

सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतली तथा ।

भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुम्भका: ।। 44 ।।

 

भावार्थ :- सूर्यभेदी, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्च्छा व प्लाविनी ये आठ प्रकार के कुम्भक अर्थात प्राणायाम कहे गए हैं ।

 

बन्ध का प्रयोग

 

पूरकान्ते तु कर्तव्यो बन्धो जालन्धराभिध: ।

कुम्भकान्ते रेचकादौ कर्तव्यस्तूड्डियानक: ।। 45 ।।

 

भावार्थ :- प्राणायाम करते हुए पूरक अर्थात प्राणवायु को शरीर के अन्दर भरने के बाद जालन्धर बन्ध लगाना चाहिए और कुम्भक ( प्राण को रोकने ) के बाद व रेचक ( छोड़ने ) से पहले उड्डीयान बन्ध का प्रयोग करना चाहिए ।

 

बन्धों का महत्त्व

 

अधस्तात्कुञ्चनेनाशु कण्ठसंकोचने कृते ।

मध्ये पश्चिमतानेन स्यात् प्राणो ब्रह्मनाडिग: ।। 46 ।।

 

भावार्थ :- कुम्भक ( प्राणायाम ) करते समय गुदा का संकोच रूपी मूलबन्ध करने, गले का संकोच रूपी जालन्धर बन्ध करने व उदर का संकोच रूपी उड्डीयान बन्ध का अभ्यास करने से साधक का प्राण सीधा ब्रह्मनाड़ी अर्थात सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करता है ।

 

विशेष :- सुषुम्ना नाड़ी को ब्रह्मनाड़ी भी कहा जाता है ।

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