प्राणायामैरेव सर्वे प्रशुष्यन्ति मला इति ।

आचार्याणां तु केषाञ्चिदन्यत् कर्म न संमतम् ।। 38 ।।

 

भावार्थ :- कुछ योग आचार्यों का मानना है कि प्राणायाम के द्वारा ही शरीर के सभी दोष अथवा विकारों की समाप्ति हो जाती है । अतः षट्कर्म आदि शुद्धि क्रियाओं को करने की कोई आवश्यकता नहीं है ।

 

विशेष :- कुछ आचार्य प्राणायाम क्रियाओं को ही शरीर के दोषों या विकारों को दूर करने में सक्षम मानते हैं । उनके अनुसार प्राणायाम करने के बाद शुद्धि क्रियाओं को करने की कोई आवश्यकता नहीं है ।

 

ब्रह्मादयोऽपि त्रिदशा: पवनाभ्यासतत्परा: ।

अभूवन्नन्तकभयात् तस्मात् पवनमभ्यसेत् ।। 39 ।।

 

भावार्थ :- यमराज अर्थात मृत्यु के भय से ब्रह्मा आदि देवताओं ने भी प्राणायाम का अभ्यास किया था । इसलिए हमें भी प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए ।

 

 

यावद् बद्धो मरुद् देहे यावच्चितं निराकुलम् ।

यावद् दृष्टि: भ्रुवो: मध्ये तावत्कालभयं कुत: ।। 40 ।।

 

भावार्थ :- जब तक इस शरीर में वायु अर्थात प्राण स्थिर है तब तक चित्त भी स्थिर है । जब तक साधक की दृष्टि भौहों ( आज्ञा चक्र ) के बीच में स्थिर है तब तक उसे मृत्यु का भय नहीं रहता ।

 

 

विशेष :- इस श्लोक में प्राण के महत्त्व को दर्शाया गया है ।

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