बस्ति क्रिया

 

नाभिदध्नजले पायुन्यस्तनालोत्कटासन: ।

आधाराकुन्चनं कुर्यात् क्षालनं बस्तिकर्म तत् ।। 27 ।।

  

भावार्थ :- नाभि तक के गहरे पानी में उत्कटासन लगाकर गुदा में नाल अर्थात नली लगाकर अपने मूलाधार का संकोच करें ( अश्वनी मुद्रा का अभ्यास करें ) अर्थात गुदा से पानी को अन्दर की ओर खींचें और गुदा को अन्दर से धोये । यह बस्ति क्रिया कहलाती है ।

 

विशेष :- गुदा का आंकुचन ( फैलाना )  व संकुचन ( सिकोड़ना ) करना अश्वनी मुद्रा कहलाती है ।

 

 

बस्ति क्रिया के लाभ

 

गुल्म प्लीहोदरं चापि वातपित्तकफोद्भवा: ।

बस्तिकर्मप्रभावेण क्षीयण्ते सकलामया: ।। 28 ।।

 

भावार्थ :- बस्ति क्रिया के प्रभाव अर्थात अभ्यास से वायुगोला, तिल्ली, जलोदर व वात, पित्त और कफ के असन्तुलन से उत्पन्न होने वाले सभी रोगों का नाश होता है ।

 

विशेष :- वायुगोला का अर्थ है पेट में वायु के प्रकोप से कई बार एक गोलानुमा आकृति का बनना । तिल्ली स्प्लीन को कहते हैं व जलोदर का अर्थ है जल से उत्पन्न होने वाले रोग ।

 

 

धात्त्विन्द्रियान्त:करणप्रसादं दद्याच कान्तिन्दहनप्रदीप्तिम् ।

अशेषदोषोपचयं निहन्यादभ्यस्यमानं जलबस्तिकर्म ।। 29 ।।

भावार्थ :- जल बस्ति क्रिया से ही शरीर की सभी रस, रक्त, मास, मेद, मज्जा हड्डी व वीर्य आदि सप्त धातु, इन्द्रियाँ, और अन्त:करण निर्मल हो जाते हैं । शरीर में तेजस्विता आती है । पाचन क्रिया मजबूत होती है और साथ ही जल बस्ति से सभी प्रकार के रोग भी समाप्त होते हैं ।

 

 

नेति क्रिया

 

सूत्रं वितस्ति सुस्निग्धं नासानाले प्रवेशयेत् ।

मुखान्निर्गमयेच्चैषा नेति: सिद्धैर्निगद्यते ।। 30 ।।

 

भावार्थ :- पूरी तरह चिकनाई से युक्त एक बारह अँगुल लम्बे सूती धागे को नाक के एक छिद्र से डालकर उसे मुँह द्वारा बाहर निकालने को योगियों ने नेति क्रिया कहा है ।

 

 

विशेष :- 1. सूती धागे पर घी या तेल में अच्छी तरह से लगा होना चाहिए ।

  1. जो नासिका खुली हुई है पहले उसी नासिका से इसका अभ्यास करें । फिर दूसरी तरफ से

3. इस क्रिया को कागासन में बैठकर करना चाहिए । वैसे खड़े होकर भी इसका अभ्यास किया जा सकता है ।

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