वायु कुपित होने से रोगों की उत्पत्ति

 

हिक्का श्वासश्च कासश्च शिर:कर्णाक्षिवेदना: ।

भवन्ति विविधा: रोगा: पवनस्य प्रकोपत: ।। 17 ।।

 

भावार्थ :- प्राणवायु के कुपित ( असन्तुलन ) होने से हिचकी, दमा, खाँसी, सिर, कान व आँख में पीड़ा तथा विभिन्न प्रकार के अन्य रोग भी होते हैं ।

 

युक्तं युक्तं त्यजेद्वायुं युक्तं युक्तं च पूरयेत् ।

युक्तं युक्तं च बध्नीयादेवं सिद्धिमवाप्नुयात् ।। 18 ।।

 

भावार्थ :- योगी साधक हमेशा प्राणवायु को सही विधि से ही बाहर निकाले, सही विधि से ही अन्दर ले व सही विधि से ही अन्दर रोकना चाहिए । अर्थात साधक को विधिवत रूप से प्राणवायु का रेचन, पूरक व कुम्भक करना चाहिए । इस प्रकार पूर्ण विधि से प्राणायाम करने से साधक को सिद्धि प्राप्त होती है ।

 

नाड़ी शुद्धि का फल

 

यदा तु नाड़ीशुद्धि: स्यात् तदा चिह्नानि बाह्यत: ।

कायस्य कृशता कान्तिस्तथा जायेत निश्चतम् ।। 19 ।।

यथेष्टधारणं वायोरनलस्य प्रदीपनम् ।

नादाभिव्यक्तिरारोग्यं जायते नाडिशोधनात् ।। 20 ।।

 

भावार्थ :- जब हम उचित विधि से प्राणायाम का अभ्यास करते हैं तो उसके फलस्वरूप शरीर में कुछ बाह्य लक्षण दिखाई देते हैं । जिससे शरीर निश्चित रूप से पतला व कान्तियुक्त ( चमक वाला ) हो जाता है । इस प्रकार नाड़ी के शुद्ध होने से व प्राणवायु को अपनी इच्छानुसार रोक लेने से जठराग्नि प्रदीप्त अर्थात जाग्रत होती है । अनाहत नामक नाद प्रकट होता है और साधक पूर्ण रूप से आरोग्यता से परिपूर्ण ( स्वस्थ ) हो जाता है ।

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  1. लक्ष्मी नारायण योग शिक्षक पतंजलि योगपीठ हरिव्दार ।l says:

    ऊॅ सर जी ।बहुत बढिया तरीके से प्राणवायु को सिध्द करने का उपाय आपने समझाया ।बहुत बहुत धन्यवाद ।

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