प्रातर्मध्यन्दिने सायमर्धरात्रे च कुम्भकान् ।

शनैरशीति पर्यन्तं चतुर्वारं समभ्यसेत् ।। 11 ।।

 

भावार्थ :- सुबह, दिन के मध्य अर्थात दोहपर में, सायंकाल में तथा आधी रात को इस प्रकार साधक को चार बार में अस्सी ( 80 ) कुम्भकों का अभ्यास करना चाहिए ।

 

विशेष :- इस प्रकार यहाँ पर चार बार कुम्भक का अभ्यास करते हुए कुल अस्सी कुम्भकों को करने की बात कही गई है । इससे पता चलता है कि एक बार में कुल बीस ( 20 ) कुम्भकों का अभ्यास करना चाहिए । तभी चार बार में अस्सी कुम्भक पूरे होंगे ।

साधक के तीन प्रकार

 

कनीयसि भवेत्स्वेद: कम्पो भवति मध्यमे ।

उत्तमे स्थानमाप्नोति ततो वायुं निबन्धयेत् ।। 12 ।।

 

भावार्थ :- कुम्भकों का अभ्यास करते हुए जब साधक के शरीर से पसीना निकलने लगे तो वह साधना की सबसे छोटी अथवा पहली अवस्था होती है । जिस अवस्था में शरीर के अंगों में कम्पन होने लगे वह साधना का दूसरा स्तर अथवा मध्य अवस्था कहलाती है । जैसे ही साधक में साधना की उच्च अवस्था आती है तो उसका शरीर भूमि को छोड़कर ऊपर उठने लगता है । इसे आकाश गमन की सिद्धि भी कहते हैं । अतः इन अवस्थाओं में उन्नति करने के लिए कुम्भक का अभ्यास करें ।

 

विशेष :- यहाँ पर साधक के तीन प्रकारों का वर्णन किया गया है । जिनको निम्न, मध्य व उच्च कोटि के साधकों के नाम से भी जाना जा सकता है ।

 

पसीने की मालिश का फल

 

जलेन श्रमजातेन गात्रमर्दनमाचरेत् ।

दृढता लघुता चैव तेन गात्रस्य जायते ।। 13 ।।

 

भावार्थ :- कुम्भक ( प्राणायाम ) रूपी परिश्रम करने से शरीर में पसीना आता है । उस पसीने की शरीर पर मालिश करनी चाहिए । उस पसीने को कभी भी पोछना नहीं चाहिए । ऐसा करने से शरीर मजबूत व हल्का हो जाता है ।

 

अभ्यासकाले प्रथमे शस्तं क्षीराज्यभोजनम् ।

ततोऽभ्यासे दृढीभूते न तादृङ्नियमग्रह: ।। 14 ।।

 

भावार्थ :- योग साधना के प्रारम्भ में साधक के लिए घी व दूध से बने भोजन का सेवन करना उत्तम होता है । उसके बाद जब साधक का अभ्यास मजबूत हो जाने पर भोजन के लिए इस प्रकार के नियम का पालन करना आवश्यक नहीं होता है ।

 

विशेष :- योग साधना के शुरुआती दौर में साधक को अपने आहार के प्रति अधिक जागरूक होना चाहिए । इसलिए योग के प्रारम्भ में साधक को पुष्टि व बल प्रदान करने वाले खाद्य पदार्थ अर्थात घी व दूध आदि का सेवन करना आवश्यक है । इससे शरीर में सामर्थ्यता बढ़ती है ।

 

यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्य: शनै: शनै: ।

तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ।। 15 ।।

 

भावार्थ :- जिस प्रकार शेर, हाथी व बाघ आदि जंगली जानवरों को धीरे- धीरे वश में किया जाता है । ठीक उसी प्रकार प्राणवायु को भी धीरे- धीरे प्रयत्न पूर्वक वश अथवा नियंत्रण में करना चाहिए । इसके विपरीत यदि प्राणवायु को नियंत्रण करने में किसी प्रकार का उतावलापन या जल्दबाजी करने से जीवन की हानि अर्थात मृत्यु भी हो सकती है । अतः प्राणायाम को सदा पूरी सावधानी व यत्नपूर्वक करना चाहिए ।

 

प्राणायाम में सावधानी

 

प्राणायामेन युक्तेन सर्वरोगक्षयो भवेत् ।

अयुक्ताभ्यासयोगेन सर्वरोगसमुद्भव: ।। 16 ।।

 

भावार्थ :- उचित विधि से प्राणायाम का अभ्यास करने से सभी प्रकार के रोगों का नाश होता है । लेकिन विपरीत विधि अथवा गलत तरीके से प्राणायाम का अभ्यास करने से शरीर में सभी प्रकार के रोगों के उत्पन्न होने की भी सम्भावना रहती है ।

 

विशेष :- प्राणायाम का अभ्यास किसी योग्य गुरु के निर्देशन में ही करना चाहिए । अन्यथा लाभ की जगह हानि हो सकती है ।

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  1. अर्थात नाड़ीसोधन प्राणायाम मात्र से मानव मोक्ष प्राप्त कर सकता है???

  2. ॐ गुरुदेव*
    आपके पुरुषार्थ को शत_ शत नमन ।

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