द्वितीय उपदेश

 

 कुम्भक, ( प्राणायाम ) व षट्कर्म वर्णन

 

अथासने दृढे योगी वशी हितमिताशन: ।

गुरूपदिष्टमार्गेण प्राणायामान् समभ्यसेत ।। 1 ।।

 

भावार्थ :- आसन का अभ्यास मजबूत हो जाने पर योगी को अपनी इन्द्रियों को वश में करके हितकारी व थोड़ी मात्रा वाला भोजन करना चाहिए । इसके बाद वह गुरु के द्वारा बताई गई प्राणायाम की विधियों का अभ्यास करे ।

 

चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत् ।

योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुं निरोधयेत् ।। 2 ।।

 

भावार्थ :- वायु अर्थात प्राणवायु के चंचल होने से हमारा चित्त भी चंचल हो जाता है । और प्राणवायु के स्थिर हो जाने से हमारा चित्त भी स्थिर हो जाता है । प्राणवायु अर्थात प्राणायाम के द्वारा योगी जड़ पदार्थ की तरह स्थिरता प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार जब योगी प्राण को स्थिर कर देता है तो उससे उसका चित्त भी स्वयं ही स्थिर हो जाता है । अतः योगी साधक को प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए ।

 

विशेष :- इस श्लोक में चित्त व मन दोनों को नियंत्रित करने का उपाय बताया गया है । हमारे जीवन का आधार हमारा प्राण ही है । जब तक यह हमारे शरीर में विद्यमान रहता है तब तक हम जीवित रहते हैं । और जैसे ही यह शरीर से बाहर निकल जाता है वैसे ही हम मृत घोषित हो जाते हैं । जिस तत्त्व के शरीर में रहने से ही हमारे जीवन की सत्ता है । और जिसके न रहने से हमारी सत्ता ही समाप्त हो जाती है । ऐसे तत्त्व को प्राण कहते हैं । जब साधक जीवन का आधार कहे जाने वाले प्राण पर नियंत्रण कर लेता है । तो उसके बाद कुछ भी ऐसा नहीं रहता जिसको मनुष्य अपने नियंत्रण में न ला सके । फिर चाहे वह चित्त हो, मन हो या इन्द्रियाँ । अतः प्राणायाम करने से जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नियंत्रण किया जा सकता है । अगले श्लोक में प्राण की अमूल्य उपयोगिता का भी वर्णन किया गया है ।

 

 

यावद् वायु: स्थितो देहे तावज्जीवनमुच्यते ।

मरणं तस्य निष्कान्ति: ततो वायुं निरोधयेत् ।। 3 ।।

 

भावार्थ :- शरीर में जब तक यह प्राणवायु विद्यमान ( स्थित ) है । तब तक ही जीवन कहलाता है । लेकिन जैसे ही यह प्राणवायु शरीर से बाहर निकल जाता है । वैसे ही हम मरण ( मृत्यु ) अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं । इसलिए हमें जीवन की रक्षा हेतु प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए ।

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  1. लक्ष्मी नारायण योग शिक्षक पतंजलि योगपीठ हरिव्दार ।l says:

    बहुत बहुत धन्यवाद सर ।

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