नादयोग समाधि वर्णन

 

अनिलं मन्दवेगेन भ्रामरीकुम्भकं चरेत् ।

मन्दं मन्दं रेचयेद्वायुं भृङ्गनादं ततो भवेत् ।। 9 ।।

अन्त:स्थं भ्रामरीनादं श्रुत्वा तत्र मनो नयेत् ।

समाधिर्जायते तत्र आनन्द: सोऽहमित्यत: ।। 10 ।।

 

भावार्थ :-  वायु को धीमी गति के साथ शरीर के अन्दर भरकर भ्रामरी कुम्भक करे । इसके बाद उस वायु को धीरे- धीरे बाहर निकालते हुए भँवरे जैसा नाद ( उच्चारण अथवा ध्वनि ) उत्पन्न होता है ।

इस प्रकार शरीर के अन्दर हो रहे उस नाद ( ध्वनि ) को सुनकर वहीं पर अपने मन को केन्द्रित करने से साधक की समाधि लग जाती है और ‘जहाँ पर आनन्द वहीं पर मैं’ ( ‘सोऽहम’ ) के भाव की प्राप्ति होती है । इसे नादयोग समाधि कहा जाता है ।

 

 

विशेष :-  भ्रामरी मुद्रा के अभ्यास के समय किस प्रकार की ध्वनि अथवा नाद की उत्पत्ति होती है ? उत्तर है भँवरे की ।

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  1. ॐ गुरुदेव!
    आपका बहुत बहुत आभार।

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