प्राणायाम के समय किन- किन अँगुलियों का प्रयोग करें ?

 

अनुलोमविलोमेन वारं वारं च साधयेत् ।

पूरकान्ते कुम्भकांते धृतनासापुटद्वयम् ।

कनिष्ठानामिकाङ्गुष्ठै: तर्जनीमध्यमे विना ।। 52 ।।

भावार्थ :-  अनुलोम – विलोम अर्थात् बायीं और दायीं नासिका से इस श्वसन प्रक्रिया को बार- बार करना चाहिए । ऐसा करते हुए प्राण को शरीर में भरते हुए व शरीर से बाहर निकालते हुए नासिका के दोनों ओर कनिष्ठा, अनामिका ( सबसे छोटी, तीसरी ) अँगुलियों व अँगूठे का ही प्रयोग करें । तर्जनी व मध्यमा ( पहली व दूसरी ) अँगुलियों का प्रयोग नहीं करना चाहिए ।

 

 

विशेष :-  परीक्षा की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण प्रश्न बनता है कि प्राणायाम साधना के दौरान किन- किन अँगुलियों का प्रयोग करना चाहिए ? जिसका उत्तर है कनिष्ठा ( सबसे छोटी ) व अनामिका ( तीसरी या रिंग फिंगर ) व अँगूठे का ही प्रयोग करना चाहिए । या यह भी पूछा जा सकता है कि अनुलोम- विलोम साधना2 करते हुए किन- किन अँगुलियों का प्रयोग नहीं करना चाहिए ? जिसका उत्तर है तर्जनी ( पहली ) व मध्यमा ( दूसरी अथवा सबसे बड़ी ) अँगुलियों का प्रयोग नहीं करना चाहिए ।

 

 

निगर्भ प्राणायाम वर्णन

 

प्राणायामो निगर्भस्तु विना बीजेन जायते ।

एकादिशतपर्यन्तं पूरककुम्भकरेचनम् ।। 53 ।।

 

भावार्थ :-  निगर्भ प्राणायाम को बिना बीजमन्त्र के ही किया जाता है । साधक को पूरक ( श्वास को अन्दर भरना ), कुम्भक ( प्राण को अन्दर ही रोके रखना ) और रेचक ( प्राण को बाहर निकालना ) क्रियाओं को एक से सौ बार ( 100 ) तक बिना बीजमन्त्र के करना चाहिए ।

 

 

विशेष :-  निगर्भ प्राणायाम करते हुए पूरक, कुम्भक व रेचक क्रियाओं को कितनी बार करना चाहिए ? उत्तर है एक सौ बार ( 100 )

 

 

प्राणायाम की उत्तम, मध्यम व निकृष्ट अवस्थाएँ

 

 

उत्तमा विंशतिर्मात्रा षोडशी मात्रा मध्यमा ।

अधमा द्वादशी मात्रा प्राणायामास्त्रिधा स्मृता: ।। 54 ।।

 

भावार्थ :-  गुणवत्ता के आधार पर प्राणायाम के तीन विभाग बनाये गए हैं । जिनमें बीस मात्रा वाले प्राणायाम को उत्तम अर्थात् सबसे अच्छा माना जाता है । सोलह मात्रा वाले प्राणायाम को मध्यम अर्थात् बीच वाला माना जाता है और बारह मात्रा वाले प्राणायाम को अधम अर्थात् निकृष्ट या कम अच्छा माना जाता है ।

 

 

विशेष :-  यहाँ पर मात्रा का अर्थ प्राणायाम करते हुए किये गए समय होता है । प्राणायाम में पूरक, कुम्भक व रेचक का सामान्य अनुपात 1: 4: 2 होता है । जिसमें एक का अर्थ है श्वास को अन्दर भरने में जितना समय लगता है वह एक अनुपात कहलाता है । दूसरा कुम्भक होता है चार अनुपात अर्थात् जितने समय प्राण को अन्दर भरते हुए लगा है उससे चार गुणा अधिक समय तक उसे शरीर के अन्दर ही रोके रखना । उसके बाद तीसरा होता है रेचक जिसका अनुपात दो होता है । जिसका अर्थ है जितने समय में प्राण को अन्दर भरा था, उससे दुगने समय तक उसे बाहर निकालना ।

अब यहाँ पर कही गई मात्रा को समझते हैं । इसमें बीस मात्रा को उत्तम माना गया है । बीस मात्रा वाले प्राणायाम का अर्थ होता है बीस बीजमन्त्र तक प्राण को अन्दर भरना फिर उसे अस्सी मात्रा अर्थात् बीजमन्त्र का जप करते हुए अन्दर ही रोके रखना और फिर चालीस मात्रा अर्थात् चालीस बीजमंत्रों तक उसे बाहर निकालना । इसे हम और भी आसान तरीके से समझ सकते हैं । जब प्राणवायु को अन्दर भरते हुए हम बीस सैकेंड लगाते हैं और उसे अस्सी सैकेंड तक अन्दर ही रोके रखते हैं फिर उसके बाद चालीस सैकेंड तक उस प्राणवायु को बाहर छोड़ने में लगाते हैं । यह बीस मात्रा ( 20: 80: 40 ) वाला प्राणायाम हुआ । जिसे सबसे उत्तम माना जाता है । इसके बाद इसी प्रकार सोलह मात्रा वाले को बीच वाला ( 16: 64: 32 ) व बारह मात्रा ( 12: 48: 24 ) वाले को अधम या निकृष्ट माना जाता है ।

परीक्षा की दृष्टि से यह बहुत उपयोगी श्लोक है ।

 

 

उत्तम, मध्यम व  निकृष्ट अवस्था के लक्षण

 

 

अधमाज्जायते धर्मो  मेरुकंपं च मध्यमात् ।

उत्तमाच्च भूमित्यागस्त्रिविधंसिद्धिलक्षणम् ।। 55 ।।

 

भावार्थ :-  अधम प्रकार का प्राणायाम करने से शरीर में गर्मी बढ़ती है जिससे पसीना उत्पन्न होता है । मध्यम प्रकार का प्राणायाम से मेरुदण्ड अर्थात् रीढ़ की हड्डी में कम्पन उत्पन्न होने लगती है और उत्तम प्रकार का प्राणायाम करने से साधक का शरीर जमीन से ऊपर उठने लगता है । इस प्रकार यह तीन प्रकार के साधकों की सिद्धि के अलग- अलग लक्षण होते हैं ।

 

 

विशेष :-  इससे सम्बंधित प्रश्नों में पूछा जा सकता है कि उत्तम प्रकार का प्राणायाम करने से साधक में किस प्रकार का लक्षण प्रकट होता है ? उत्तर है जमीन से ऊपर उठने का अर्थात् भूमि त्याग करने का । मध्यम श्रेणी के साधक में किस प्रकार का लक्षण दिखाई देता है ? उत्तर है मेरुदण्ड में कम्पन का । अधम प्रकार के साधक का क्या लक्षण होता है ? उत्तर है ज्यादा पसीना आना ।

 

 

सहित प्राणायाम के लाभ

 

प्राणायामात् खेचरत्त्वं प्राणायामाद् रोगनाशनम् ।

प्राणायामाद् बोधयेच्छक्तिं प्राणायामान्मनोन्मनी ।

आनन्दो जायते चित्ते प्राणायामी सुखी भवेत् ।। 56 ।।

 

भावार्थ :-  प्राणायाम साधना करने से साधक को आकाश में विचरण अर्थात् घूमने की शक्ति की प्राप्ति होती है, उससे सभी रोग समाप्त होते हैं, कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है, समाधि की सिद्धि होती है, चित्त में विशेष प्रकार का सुख अथवा आनन्द का अनुभव होता है इसके अतिरिक्त प्राणायाम करने वाला साधक सदा सुखी रहता है ।

 

 

विशेष :-  ऊपर वर्णित सभी लाभ महत्वपूर्ण हैं । विद्यार्थी इन्हें याद रखें ।

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