मिताहार की उपयोगिता

 

मिताहारं विना यस्तु योगारम्भं तु कारयेत् ।

नानारोगो भवेत्तस्य किञ्चिद्योगो न सिद्धयति ।। 16 ।।

 

भावार्थ :- जो साधक बिना मिताहार का पालन किये ही योगाभ्यास को शुरू कर देता है । उसे अनेक प्रकार के रोग हो जाते हैं साथ ही उसे योग में नाममात्र सिद्धि भी नहीं मिलती ।

 

 

विशेष :-  मिताहार का पालन किये बिना योग करने से क्या- क्या हानि होती हैं ? उत्तर है अनेक प्रकार के रोग व सिद्धि प्राप्त न होना ।

 

 

 

ग्राह्यहार ( ग्रहण अथवा खाने योग्य पदार्थ )

 

शाल्यन्नं यवपिण्डं वा गोधूमपिण्डकं तथा ।

मुद्गं माषचणकादि शुभ्रं च तुष वर्जितम् ।। 17 ।।

पटोलं पनसं मानं कक्कोलं च शुकाशकम् ।

द्राढ़िका कर्कटीं रम्भां डुम्बरीं कण्टकण्टकम् ।। 18 ।।

आमरम्भां बालरम्भां रम्भादण्डं च मूलकम् ।

वार्ताकी मूलकं ऋद्धिं योगी भक्षणमाचरेत् ।। 19 ।।

बालशाकं कालशाकं तथा पटोलपत्रकम् ।

पञ्चशाकं प्रशंसीयाद्वास्तूकं हिलमो चिकाम् ।। 20 ।।

 

भावार्थ :- ग्राह्य अथवा हितकारी आहार :- हितकारी आहार में महर्षि घेरण्ड ने निम्न खाद्य पदार्थों को रखा है – चावल, जौ का आटा, गेहूँ का आटा, भूसा रहित मूँग, उड़द व चना आदि दालों को अच्छे से साफ करके ।

परवल, कटहल, कंकोल, करेला, जिमींकंद, अरवी, ककड़ी, केला, गूलर, व चौलाई का शाक ।

कच्चा केला या केले का डंठल और फूल, केले के बीच का भाग या दण्ड, केले की जड़, बैंगन, मूली आदि का योगी को सेवन करना चाहिए ।

कच्चा शाक, मौसमी सब्जियाँ, परवल का शाक, बथुआ व हिमलोचिका अर्थात् हुरहुर की सब्जी आदि पाँच प्रकार के शाक को योगी हेतु प्रशंसनीय बताया गया है ।

 

 

 

विशेष :- हितकारी आहार का अर्थ है जिन खाद्य पदार्थों को ग्रहण अथवा खाना चाहिए । ऐसा आहार जो योग साधना में सहायक हो, जो शीघ्रता से पचने वाले हों । ऊपर वर्णित सभी खाद्य पदार्थ परीक्षा की दृष्टि से उपयोगी हैं ।

 

 

मिताहार वर्णन

 

शुद्धं सुमधुरं स्निग्धं उदरार्द्घविवर्जितम् ।

भुज्यते सुरसं प्रीत्या मिताहारमिमं विदुः ।। 21 ।।

 

भावार्थ :- पूरी तरह से शुद्ध अर्थात् स्वच्छ, मधुर अर्थात् मीठा, स्निग्ध अर्थात् घी आदि से बना चिकना भोजन, आधा पेट अर्थात् भूख से आधा भोजन जो शरीर में रस व प्रीति अर्थात् सुख को बढ़ाता है । उसे विद्वानों ने मिताहार कहा हैं ।

 

 

विशेष :-  मिताहार के सम्बंध में यही पूछा जाता है कि कौन- कौन से पदार्थों को मिताहार में शामिल किया गया है ? उत्तर है शुद्ध, मीठा, चिकना, भूख से आधा अथवा आधा पेट, रस व सुख को बढ़ाने वाला आहार ।

 

पेट में भोजन, पानी व वायु की मात्रा वर्गीकरण

 

अन्नेन पूरयेदर्धं तोयेन तु तृतीयकम् ।

उदरस्य तुरियांशं संरक्षेद्वायुचारणे ।। 22 ।।

 

भावार्थ :-  पेट के आधे भाग अथवा हिस्से को अन्न से भरें, तीसरे हिस्से को जल से व चौथे हिस्से को वायु के आने- जाने के लिए खाली छोड़ देना चाहिए ।

 

 

विशेष :-  परीक्षा में पूछा जा सकता है कि पेट के कितने हिस्से को अन्न, जल व वायु के लिए सुरक्षित रखना चाहिए ? उत्तर है आधे हिस्से को अथवा दो हिस्सों को अन्न के लिए, तीसरे हिस्से को पानी व चौथे हिस्से को वायु के लिए सुरक्षित रखना चाहिए ।

 

 

अग्राह्य आहार ( वर्जित आहार )

 

कट्वम्लं लवणं तिक्तं भृष्टं च दधि तक्रकम् ।

शाकोत्कटं तथा मद्यं तालं च पनसं तथा ।। 23 ।।

कुलत्थं मसूरं पाण्डुं कुष्माण्डं शाकदण्डकम् ।

तुम्बीकोलकपित्थं च कण्टबिल्वं पलाशकम् ।। 24 ।।

कदम्बं जम्बीरं निम्बं कलुचं लशुनं विषम् ।

कामरङ्गं प्रियालं च हिङ्गुशाल्मलीकेमुकम् ।

योगारम्भे वर्जयेत्पथ्यं स्त्रीवह्निसेवनम् ।। 25 ।।

नवनीतं घृतं क्षीरं गुड शक्रादि चैक्षवम् ।

पञ्चरम्भां नारिकेलं दाडिमंमसिवासरम् ।

द्राक्षां तु नवनीं धात्रीं रसमम्लंविवर्जितम् ।। 26 ।।

 

भावार्थ :-  योगी साधक को निम्न खाद्य पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए :- कडुआ, खट्टा, नमकीन, तीखा, ज्यादा भुने हुए, दही व छाछ, विरेचक अथवा बुरे शाक, मादक द्रव्यव ( शराब आदि ), ताड़ का फल, लकुच ।

कुल्थी, मसूर दाल, प्याज, पेठा, दाण्डी का शाक, कड़वी घीया, वेर, कांटे वाली बेल पर पके हुए पलाश के फल- फूल ।

कदम्ब, जम्बीर नीम्बू, लकुच, लहसुन, किसी भी प्रकार का विष, कमरख, चिरौंजी, हींग, सेमर के फूल, गोभी, लम्बी यात्रा, स्त्री का सङ्ग और अग्नि के सेवन आदि योग के आरम्भ में वर्जित कहे गए हैं ।

नया घी अर्थात् मक्खन, दूध, गुड़ व शक्कर आदि, पाँच प्रकार के केले के भाग, नारियल, अनार, सौंफ, मुनक्का, खट्टे रस से रहित आँवला व अम्ल रस वाले पदार्थों का सेवन वर्जित है ।

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  1. Om
    Kripaya
    केला के बारे में बताएं केला हितकारी है
    पांच प्रकार के केले के भाग वर्जित

  2. (1) घेरण्डसंहितानुसारेण मिताहारस्वरूपं सम्यक् विवेचयतु । (2) हठयोगप्रदीपिकानुसारेण प्राणस्य भेदं निरूपयतु , शरीरे प्राणाणां विभिन्नस्थानं कार्यञ्च प्रबोधयतु ।
    संस्कृत में

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