अठारहवां अध्याय ( मोक्ष- संन्यासयोग ) यह गीता का अन्तिम व सबसे बड़ा अध्याय है । जिसमें कुल अठत्तर ( 78 ) श्लोकों का वर्णन किया गया है । इस अध्याय में पूरी गीता का सार भरा हुआ है । इसको गीता का उपसंहार भी कहा जाता है । यहाँ पर एक प्रकार से पूरी

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Bhagwad Geeta Ch. 18 [1-3]

निश्चयं श्रृणु में तत्र त्यागे भरतसत्तम । त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ।। 4 ।। यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्‌ । यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्‌ ।। 5 ।।       व्याख्या :- हे भरत श्रेष्ठ अर्जुन ! हे पुरुष व्याघ्र ! ( पुरुषों में श्रेष्ठ ) त्याग के विषय में तुम मेरे निश्चय

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Bhagwad Geeta Ch. 18 [4-7]

दुःख व क्लेश के डर से निश्चित कर्मों का त्याग = राजसिक त्याग   दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्‌ । स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्‌ ।। 8 ।।     व्याख्या :-  जो व्यक्ति शरीर को होने वाले कष्ट व दुःख से भयभीत होकर निश्चित कर्मों का त्याग करता है, उस त्याग को राजसिक त्याग

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Bhagwad Geeta Ch. 18 [8-10]

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः । यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ।। 11 ।।     व्याख्या :-  कोई भी शरीरधारी ( मनुष्य ) चाहते हुए भी सभी कर्मों का बिल्कुल त्याग नहीं कर सकता । अतः जो नियत कर्मों का त्याग न करके कर्मफल की इच्छा का त्याग करता है, वही सच्चा त्यागी होता

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Bhagwad Geeta Ch. 18 [11-14]

शरीरवाङ्‍मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः । न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ।। 15 ।।     व्याख्या :-  मनुष्य अपने मन, वचन व शरीर से जो भी कर्म करता है, फिर चाहे वह न्याय संगत ( शास्त्रों द्वारा उपदेशित ) हों अथवा न्याय विरोधी ( शास्त्रों द्वारा वर्जित ) उन सभी कर्मों के यही पाँच

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Bhagwad Geeta Ch. 18 [15-18]

सांख्य दर्शन के गुण = सत्त्व, रज व तम     ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः । प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छ्णु तान्यपि ।। 19 ।।       व्याख्या :-  गुणों ( सत्त्व, रज व तम ) की संख्या पर आधारित सांख्यशास्त्र ( सांख्य दर्शन ) के अनुसार ज्ञान, कर्म और कर्ता सात्त्विक, राजसिक

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Bhagwad Geeta Ch. 18 [19-22]

सात्त्विक कर्म   नियतं सङ्‍गरहितमरागद्वेषतः कृतम । अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ।। 23 ।।       व्याख्या :-  जो कर्म शास्त्रों के अनुसार आसक्ति, राग, द्वेष व फल की इच्छा से रहित होकर किया जाता है, वह सात्त्विक कर्म कहलाता है ।     राजसिक कर्म   यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्‍कारेण वा पुनः । क्रियते

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Bhagwad Geeta Ch. 18 [23-25]