महर्षि व्यासजी ( संकलन कर्ता )   व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्‍गुह्यमहं परम्‌ । योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्‌ ।। 75 ।।     व्याख्या :-  महर्षि व्यासजी की विशेष कृपा दृष्टि से मैंने स्वयं इस परम गोपनीय योग ज्ञान को प्रत्यक्ष रूप से योगेश्वर श्रीकृष्ण के मुख से सुना है ।     विशेष :- संजय ने गीता के परम

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Bhagwad Geeta Ch. 18 [75-78]

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा । कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ।। 72 ।।     व्याख्या :-  भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से पूछते हैं – हे पार्थ ! क्या तुमने इस ज्ञान को एकाग्र चित्त से सुना है ? और हे धनंजय ! क्या इससे तुम्हारा अज्ञान से जनित ( उत्पन्न ) मोह नष्ट हो गया ?  

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Bhagwad Geeta Ch. 18 [72-74]

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति । भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ।। 68 ।।     व्याख्या :-  जो मेरे प्रति परम भक्ति का भाव रखते हुए अथवा मुझसे प्रेम करते हुए इस श्रेष्ठ व गुप्त ज्ञान को मेरे भक्तों को बताएगा, वह निश्चित रूप से मुझको ही प्राप्त होगा । इसमें किसी प्रकार का

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Bhagwad Geeta Ch. 18 [68-71]

भगवान की शरण में   मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।। 65 ।।     व्याख्या :-  तुम अपने मन को मुझमें लगाकर मेरे भक्त बन जाओ और मुझे नमस्कार करते हुए मेरी ही उपासना करो । मैं इस बात की सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ कि ऐसा

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Bhagwad Geeta Ch. 18 [65-67]

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत । तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्‌ ।। 62 ।।     व्याख्या :-  इसलिए हे भारत ! तुम अपने सभी भावों को परमात्मा में समर्पित करके उनकी शरण में जाओ, क्योंकि परमात्मा के आशीर्वाद रूपी प्रसाद से ही तुम्हें परम शान्ति व स्थान की स्थायी रूप से प्राप्ति होगी ।

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Bhagwad Geeta Ch. 18 [62-64]

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि । अथ चेत्वमहाङ्‍कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ।। 58 ।।       व्याख्या :-  सदा मुझमें ही चित्त लगाने वाला भक्त मेरे प्रसाद ( कृपा पात्र ) से ही जीवन के सभी संकटों पर विजय प्राप्त कर लेता है और यदि वह अहंकार के वशीभूत होकर मेरे वचनों को नहीं सुनता, तो वह

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Bhagwad Geeta Ch. 18 [58-61]

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति । समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्‌ ।। 54 ।।     व्याख्या :-  वह ब्रह्मभूत ( ब्रह्मभाव को प्राप्त ) प्रसन्न चित्त व्यक्ति न ही तो किसी प्रकार की चिन्ता करता है और न ही किसी प्रकार की कोई इच्छा अथवा कामना करता है । सभी प्राणियों के

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Bhagwad Geeta Ch. 18 [54-57]