न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।

यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ।। 11 ।।

 

 

व्याख्या :-  कोई भी शरीरधारी ( मनुष्य ) चाहते हुए भी सभी कर्मों का बिल्कुल त्याग नहीं कर सकता । अतः जो नियत कर्मों का त्याग न करके कर्मफल की इच्छा का त्याग करता है, वही सच्चा त्यागी होता है ।

 

 

 

विशेष :-

  • कर्मफल की इच्छा का त्याग करने वाले को गीता में क्या कहा गया है ? उत्तर है – सच्चा त्यागी ।

 

 

कर्मफल इच्छा से = इष्ट, अनिष्ट व मिश्रित फलों की प्राप्ति

 

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्‌ ।

भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित्‌ ।। 12 ।।

 

 

व्याख्या :-  कर्मफल की इच्छा का त्याग न करने वाले मनुष्यों को तीन प्रकार के कर्मफल की प्राप्ति होती है – इष्ट ( अच्छे ), अनिष्ट ( बुरे ) और मिश्रित अर्थात् मिलेजुले । लेकिन कर्मफल की इच्छा का त्याग करने वाले संन्यासी को इन फलों की प्राप्ति नहीं होती अर्थात् वह इन कर्मफलों से मुक्त रहता है ।

 

 

 

विशेष :-

  • कर्मफल की आसक्ति का त्याग न करने वाले मनुष्यों को कितने प्रकार के फलों की प्राप्ति होती है ? उत्तर है – इष्ट, अनिष्ट व मिश्रित नामक तीन प्रकार के फलों की ।
  • किस प्रकार का साधक अथवा मनुष्य कर्मफल से मुक्त रहता है ? उत्तर है – कर्मफल में आसक्ति न रखने वाला संन्यासी ।

 

 

सिद्धि के पाँच हेतु / कारण

 

पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।

साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्‌ ।। 13 ।।

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्‌ ।

विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्‌ ।। 14 ।।

 

 

व्याख्या :-  हे महाबाहो ! सांख्य दर्शन में सभी कर्मों को सिद्धि प्राप्त करने के लिए पाँच कारण बताए गए हैं, उन्हें सुनो –

 

अधिष्ठान ( आश्रयदाता अर्थात् शरीर ) तथा कर्ता ( जीवात्मा ), भिन्न- भिन्न करण ( पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार ), भिन्न- भिन्न चेष्टा ( इन सभी के अलग- अलग कार्य ) और पाँचवा कारण है दैव ( अच्छे व बुरे संस्कारों का समूह ) ।

 

 

 

विशेष :-

  • गीता में कर्म सिद्धि के लिए सांख्य दर्शन के कितने सिद्धान्तों की चर्चा की गई है ? उत्तर है – पाँच ( 5 ) ।
  • गीता में सांख्य दर्शन के किन पाँच सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है ? उत्तर है – शरीर, जीव, इन्द्रियाँ, उनके कर्म ( इन्द्रियों के ) व दैव ( संस्कार ) ।

करण के कितने भेद होते हैं ? उत्तर है – तेरह ( 13 ) पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक मन, एक बुद्धि और एक अहंकार ।

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