य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।

भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ।। 68 ।।

 

 

व्याख्या :-  जो मेरे प्रति परम भक्ति का भाव रखते हुए अथवा मुझसे प्रेम करते हुए इस श्रेष्ठ व गुप्त ज्ञान को मेरे भक्तों को बताएगा, वह निश्चित रूप से मुझको ही प्राप्त होगा । इसमें किसी प्रकार का कोई सन्देह नहीं है ।

 

 

सबसे प्रिय भक्त

 

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।

भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ।। 69 ।।

 

 

व्याख्या :-  इस प्रकार मुझे उससे ( भक्तों को उत्तम ज्ञान बताने वाले से ) बढ़कर प्रिय न तो सम्पूर्ण मनुष्य जाति में कोई और है और न ही उससे बढ़कर प्रिय इस पृथ्वी पर कोई और है ।

 

 

गीता का महात्म्य

 

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः ।

ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ।। 70 ।।

 

 

व्याख्या :-  जो भी पुरुष हमारे बीच हुए इस धर्मयुक्त संवाद ( बातचीत ) का अध्ययन करेगा, वह ज्ञानयज्ञ द्वारा मेरी पूजा करेगा, ऐसा मेरा मानना है ।

 

 

 

विशेष :-  भगवान श्रीकृष्ण ने इस श्लोक के माध्यम से गीता के ज्ञान को धर्म से युक्त बताते हुए इसका अध्ययन करने वाले की मनोदशा का वर्णन किया है ।

 

 

शुभ लोकों की प्राप्ति

 

श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः ।

सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्‌ ।। 71 ।।

 

 

व्याख्या :- जो भी मनुष्य गीता के इस ज्ञान को दोष रहित होकर श्रद्धा भाव से सुनेगा, वह सभी पापों से मुक्त होकर उन शुभ लोकों ( स्वर्गादि ) को प्राप्त करेगा, जो कि पुण्य कर्म करने वाले पुण्यात्माओं को मिलते हैं ।

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