भगवान की शरण में
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।। 65 ।।
व्याख्या :- तुम अपने मन को मुझमें लगाकर मेरे भक्त बन जाओ और मुझे नमस्कार करते हुए मेरी ही उपासना करो । मैं इस बात की सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ कि ऐसा करने पर तुम मुझे ही प्राप्त करोगे, क्योंकि तुम मुझे अत्यन्त प्रिय हो ।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।। 66 ।।
व्याख्या :- सभी धर्मों का त्याग करके ( छोड़कर ) तुम मेरी शरण में आ जाओ । तुम किसी प्रकार की चिन्ता मत करो, मैं तुम्हें सब पापों से मुक्त कर दूँगा ।
विशेष :- इस श्लोक में सभी धर्मों को त्यागने की बात कही गई है, जिसका अर्थ है कि मनुष्य अपने सभी कर्तव्य कर्मों का त्याग परमात्मा में करे । इसे दूसरे अर्थों में इस प्रकार समझा जा सकता है कि मनुष्य अपने सभी कर्तव्य कर्मों को बिना किसी प्रकार के फल की इच्छा के ईश्वर में समर्पित करे अर्थात् अपने भीतर ईश्वर प्रणिधान का भाव पैदा करे । जब कोई साधक ईश्वर प्रणिधान का पालन करता है तो वह अतिशीघ्र परमात्मा को प्राप्त कर लेता है । इसी प्रकार ईश्वर प्रणिधान का प्रतिफल योगदर्शन में भी बताया गया है ।
गीता ज्ञान के अनाधिकारी
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ।। 67 ।।
व्याख्या :- गीता का यह उत्तम ज्ञान तपस्या न करने वाले ( तपस्या रहित ) को, भक्तिहीन ( भक्ति न करने वाले ) को, जो सुनना नहीं चाहता अथवा जो सुनने में रुचि नहीं रखता और जो मेरी बुराई अथवा निन्दा करता हो, उन सबको नहीं बताना चाहिए ।
विशेष :-
गीता का ज्ञान किन- किन व्यक्तियों को नहीं बताना चाहिए ? अथवा गीता ज्ञान के लिए किन- किन को अपात्र बताया गया है ? उत्तर है – तपस्या न करने वाले को, भक्तिहीन को, जो सुनने में रुचि नहीं रखता और जो परमात्मा की निन्दा करता है ।