निश्चयं श्रृणु में तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ।। 4 ।।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ।। 5 ।।
व्याख्या :- हे भरत श्रेष्ठ अर्जुन ! हे पुरुष व्याघ्र ! ( पुरुषों में श्रेष्ठ ) त्याग के विषय में तुम मेरे निश्चय अर्थात् मत को सुनो – यह त्याग तीन प्रकार ( सात्त्विक, राजसिक व तामसिक ) का होता है ।
इन यज्ञ, दान व तप आदि कर्तव्य कर्मों का कभी भी त्याग नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह यज्ञ, दान व तप आदि तीनों कर्म मनीषियों अर्थात् बुद्धिमानों को भी पवित्र करने वाले कर्म हैं ।
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ।। 6 ।।
व्याख्या :- इसलिए हे पार्थ ! पूर्व कथित यज्ञ, दान व तप आदि कर्मों को आसक्ति व फल की इच्छा का त्याग करके ही करना चाहिए, यह मेरे द्वारा निर्धारित किया गया उत्तम अथवा श्रेष्ठ मत है ।
मोह द्वारा निश्चित कर्मों का त्याग = तामसिक त्याग
नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ।। 7 ।।
व्याख्या :- जो निश्चित कर्म हैं, उनका त्याग करना उचित नहीं है । मोह द्वारा वशीभूत होकर उन ( निश्चित अथवा नियत ) कर्मों का त्याग करना तामसिक त्याग कहलाता है ।
विशेष :-
- तामसिक त्याग किसे माना गया है ? उत्तर है – निश्चित कर्मों के त्याग को ।