अठारहवां अध्याय ( मोक्ष- संन्यासयोग )
यह गीता का अन्तिम व सबसे बड़ा अध्याय है ।
जिसमें कुल अठत्तर ( 78 ) श्लोकों का वर्णन किया गया है ।
इस अध्याय में पूरी गीता का सार भरा हुआ है । इसको गीता का उपसंहार भी कहा जाता है । यहाँ पर एक प्रकार से पूरी गीता का पुनरावलोकन किया गया है ।
सर्वप्रथम श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो नियत अथवा निश्चित कर्म होते हैं उनका कभी भी त्याग नहीं करना चाहिए । इसके बाद कर्मचोदना अर्थात् कर्म की तीन प्रकार की प्रेरणा ( ज्ञान, ज्ञेय व ज्ञाता ) बताई गई है । आगे कर्म के गुणों के आधार पर तीन प्रकार ( सात्त्विक कर्म, राजसिक कर्म व तामसिक कर्म ) कहे गए हैं । इसी प्रकार गुणों के आधार पर ही कर्ता के भी तीन विभाग ( सात्त्विक कर्ता, राजसिक कर्ता व तामसिक कर्ता ) बताए हैं । इसके बाद बुद्धि और धृति भी गुणों के आधार पर तीन- तीन प्रकार ( सात्त्विक, राजसिक व तामसिक ) की कही गई है । आगे सुख भी गुणों से प्रभावित होने के कारण तीन प्रकार ( सात्त्विक सुख, राजसिक सुख व तामसिक सुख ) का कहा जाता है । अब वर्ण व्यवस्था को बताते हुए कहा गया है कि जो व्यक्ति जिस भी वर्ण ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र ) से सम्बंधित होता है वैसी ही उसकी प्रवृत्ति होती है । अतः सभी वर्णों के व्यक्तियों को अपने- अपने स्वभाव के अनुसार अपने कर्म करने चाहिए ।
इसके बाद अगले दो श्लोकों में बहुत ही महत्वपूर्ण बात का वर्णन करते हुए कहा है कि ‘श्रेयान् स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्’ अर्थात् दूसरे व्यक्ति के श्रेष्ठ धर्म ( कर्तव्य कर्म ) से अपना कम अच्छा कर्तव्य कर्म ही श्रेष्ठ होता है । अतः व्यक्ति को सदा अपने स्वभाव के अनुसार ही कर्म करना चाहिए न कि किसी दूसरे के स्वभाव के अनुसार । इससे अगले ही श्लोक में सहज कर्म की श्रेष्ठता बताते हुए कहा है कि ‘सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्’ अर्थात् हे कुन्ती पुत्र हमेशा सहज कर्म करते रहो भले ही उसमें कोई दोष भी हो, क्योंकि प्रत्येक कर्म में कोई न कोई दोष अवश्य ही होता है । जिस प्रकार अग्नि में कुछ अंश धुएँ का होता है । आगे इसी स्वभाव की अनिवार्यता अथवा बाध्यता का वर्णन करते हुए कहा है कि ‘स्वभावजेन कौन्तेय निबद्ध: स्वेन कर्मणा’ अर्थात् जिस स्वभाव कर्म को तुम मोह के वशीभूत होकर नहीं करना चाहते, अन्त में तुम्हें वह कर्म अपनी ही प्रकृति के स्वभाव से मजबूर होकर करना पड़ेगा । इसलिए तुम पूर्ण रूप से अपने मन को मुझमे लगाकर मेरा ही यज्ञन करो । इससे तुम्हारा अज्ञान रूपी मोह पूरी तरह नष्ट हो जाएगा ।
इस प्रकार गीता के अमृत रूपी उपदेश को सुनकर अर्जुन का मोह नष्ट हो जाता है । इसके बाद अर्जुन कहता है कि ‘नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गत सन्देह: करिष्ये वचनं तव’ ।।
अर्थात् हे पार्थ ! आपके इस ज्ञान के उत्तम प्रसाद से मेरा सारा मोह नष्ट हो गया है । अब मैं बिना किसी भी सन्देह के आपके उपदेश के अनुसार निश्चित रूप से युद्ध करूँगा ।
इस प्रकार श्रीकृष्ण द्वारा दिये गए गीता के अमृत ज्ञान से अर्जुन का मोह रूपी अज्ञान नष्ट हो जाता है और वह अधर्म के विरुद्ध इस धर्म युद्ध के लिए आरूढ़ हो जाता है ।
अर्जुन उवाच
सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ।। 1 ।।
व्याख्या :- अर्जुन कहता है – हे महाबाहो ! हे हृषीकेश ! हे केशिनिषूदन ! मैं आपसे संन्यास और त्याग के तत्त्व को अलग- अलग जानना चाहता हूँ ।
विशेष :- श्रीकृष्ण द्वारा केशी नामक दैत्य अर्थात् राक्षस का वध करने के कारण इस श्लोक में उनको केशिनिषूदन कहकर संबोधित किया गया है । बाकी महाबाहो और हृषीकेश नामों के अर्थों का वर्णन हम पिछले श्लोकों में कर चुके हैं ।
श्रीभगवानुवाच
संन्यास व त्याग
काम्यानां कर्मणा न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ।। 2 ।।
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ।। 3 ।।
व्याख्या :- श्रीकृष्ण कहते हैं – कुछ विद्वान काम्यकर्म ( कामना युक्त कर्मों ) के त्याग को संन्यास और सभी कर्मों के फलों का त्याग करने को त्याग कहते हैं ।
वहीं कुछ विद्वान कहते हैं कि दोषयुक्त होने के कारण कर्मों का भी त्याग कर देना चाहिए तो कुछ विद्वानों का कहना है कि यज्ञ, दान व तप आदि जो कर्तव्य कर्म होते हैं, उनका त्याग नहीं करना चाहिए ।
विशेष :-
- गीता के सनुसार संन्यास किसे कहते हैं ? उत्तर है – काम्यकर्म के त्याग को ।
- त्याग किसे कहा गया है ? उत्तर है – सभी कर्मों के फलों का त्याग करने को ही त्याग कहा गया है ।
- किस प्रकार के कर्मों को न त्यागने की बात गीता में विद्वानों द्वारा कही गई है ? उत्तर है – यज्ञ, दान व तप आदि कर्तव्य कर्मों का त्याग न करने की बात कही गई है ।
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