दुःख व क्लेश के डर से निश्चित कर्मों का त्याग = राजसिक त्याग

 

दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्‌ ।

स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्‌ ।। 8 ।।

 

 

व्याख्या :-  जो व्यक्ति शरीर को होने वाले कष्ट व दुःख से भयभीत होकर निश्चित कर्मों का त्याग करता है, उस त्याग को राजसिक त्याग कहते हैं । इस प्रकार का राजसिक त्याग करने से त्याग के वास्तविक फल की प्राप्ति नहीं होती ।

 

 

 

विशेष :-

  • गीता के अनुसार राजसिक त्याग किसे कहा गया है ? उत्तर है – दुःख व शारीरिक कष्ट के भय से भयभीत होकर निश्चित कर्मों का त्याग करने को ।
  • किस त्याग के करने से मनुष्य को वास्तविक फल की प्राप्ति नहीं होती है ? उत्तर है – राजसिक त्याग करने से ।

 

 

आसक्तिपूर्ण कर्मों व फल की इच्छा का त्याग = सात्त्विक त्याग

  

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेअर्जुन ।

सङ्‍गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ।। 9 ।।

 

 

व्याख्या :-  हे अर्जुन ! मेरे मत के अनुसार जब कर्तव्य कर्मों को आसक्ति व फल की इच्छा का त्याग करके किया जाता है तो वह सात्त्विक त्याग कहलाता है ।

 

 

विशेष :-

  • सात्त्विक त्याग किसे कहते हैं ? उत्तर है – आसक्ति व फल त्याग की भावना से किए गए त्याग को ।
  • सबसे श्रेष्ठ त्याग किसे माना जाता है ? उत्तर है – सात्त्विक त्याग को ।

 

 

न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।

त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ।। 10 ।।

 

 

व्याख्या :-  जो अकुशल अर्थात् दुःखकारी कर्मों के प्रति द्वेष व कुशल अर्थात् सुखकारी कर्मों के प्रति आसक्ति नहीं रखता, वही सत्त्वगुण से सम्पन्न, त्यागी, बुद्धिमान और संशय रहित होता है ।

 

 

विशेष :-

सत्त्वशील व्यक्ति का कुशल व अकुशल कर्मों के प्रति क्या दृष्टिकोण होता है अथवा सच्चे त्यागी के क्या गुण होते हैं ? उत्तर है – अकुशल कर्मों के प्रति द्वेष व कुशल कर्मों के प्रति आसक्ति रहित होता है ।

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