मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।। 7 ।।

 

 

व्याख्या :-  हे धनंजय ! मुझसे परे अन्य कोई भी नहीं है अर्थात् मेरे अलावा इस जगत् की उत्पत्ति का कोई अन्य आधार नहीं है । जिस प्रकार सूत्र के धागे में अनेकों मोती पिरोये होते हैं, उसी प्रकार यह सारा जगत् मुझमें पिरोया हुआ है अर्थात् जिस प्रकार एक धागे में अनेक मोती व्याप्त होते हैं, उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत् मुझमें व्याप्त है ।

 

 

 

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ।। 8 ।।

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ।। 9 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  हे कौन्तेय ! जलों में रस, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश, वेदों में ओंकार, आकाश में शब्द और पुरुषों में पौरुष अर्थात् पुरुषत्व मैं ही हूँ ।

 

पृथ्वी में पुण्य गन्ध, अग्नि में तेज, सभी प्राणियों में प्राण और सभी तपस्वियों में तप भी मैं ही हूँ ।

 

 

 

विशेष :-  ऊपर वर्णित श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने सर्वत्र अपनी विद्यमानता को दर्शाया है । ये श्लोक परीक्षा की दृष्टि से भी उपयोगी हैं ।

 

 

 

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्‌ ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्‌ ।। 10 ।।

 

 

व्याख्या :-  हे पार्थ ! तुम मझे ही बुद्धिमानों की बुद्धि, तेजस्वियों का तेज और इन सभी प्राणियों की उत्पत्ति का आदिकारण समझो ।

 

 

 

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्‌ ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।। 11 ।।

 

 

व्याख्या :-  हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! मैं काम व राग से रहित अर्थात् कामना और आसक्ति से रहित, बलवानों का बल और सभी प्राणियों को धर्म के विरुद्ध न जाने देने वाला काम अर्थात् धर्म पर चलने वाला काम भी मैं ही हूँ ।

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