अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्‌ ।। 24 ।।

 

 

व्याख्या :-  मन्दबुद्धि अथवा कमबुद्धि वाले व्यक्ति मेरे अविनाशी और अत्युत्तम ( अति उत्तम ) स्वरूप को न जानकर, मेरे व्यक्त स्वरूप ( दिखाई देने वाले शरीर ) को ही मेरा स्वरूप समझने की भूल कर बैठते हैं ।

 

 

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्‌ ।। 25 ।।

 

 

व्याख्या :-  अपनी योगमाया अथवा योग की शक्ति से आच्छादित ( ढका हुआ ) होने के कारण मैं सभी मनुष्यों को दिखाई नहीं देता हूँ, इसलिए अज्ञानी लोग मेरे अजन्मा और अविनाशी स्वरूप को नहीं जान पाते हैं ।

 

 

 

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ।। 26 ।।

 

 

व्याख्या :-  हे अर्जुन ! जिसकी उत्पत्ति भूतकाल में हुई है, जो वर्तमान में है और भविष्य में जिसकी उत्पत्ति होगी, मैं उन सभी प्राणियों को जानता हूँ, ऐसा इसलिए है क्योंकि सभी प्राणियों की उत्पत्ति का आधार मैं ही हूँ । लेकिन कोई भी श्रद्धा रहित प्राणी मेरे इस स्वरूप को नहीं जान पाता है ।

 

 

 

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ।। 27 ।।

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्‌ ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ।। 28 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  हे भरतवंशी अर्जुन ! इच्छा व मोह से उत्पन्न हुए द्वन्द्वों ( सुख- दुःख, मान- अपमान आदि ) के मोह में पड़कर सृष्टि के सभी प्राणी प्रायः अवचेतन अथवा भ्रम की स्थिति में रहते हैं ।

 

परन्तु हे परन्तप ! ( अर्जुन ) जिन पुण्य कर्म करने वाले मनुष्यों के सभी पाप नष्ट हो गए हैं, वह सुख- दुःख, मान- अपमान व  जय- पराजय आदि द्वन्द्वों के मोह से मुक्त होकर पूरी दृढ़ता से मेरा भजन अथवा भक्ति करते हैं ।

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