कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ।। 20 ।।
व्याख्या :- कामनाओं अथवा इच्छाओं ने जिनके ज्ञान को अपने अधीन कर लिया है । वह सभी अपने- अपने स्वभाव अथवा प्रकृति के वशीभूत होकर अपनी- अपनी आस्था के अनुसार नियमों का पालन करके अपने – अपने देवता की पूजा- उपासना करते हैं ।
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ।। 21 ।।
व्याख्या :- जो – जो भक्त जिस- जिस देवी – देवता की श्रद्धापूर्वक उपासना करना चाहते हैं, उनकी इच्छा के अनुसार ही मैं उनकी श्रद्धा को उनके देवी अथवा देवता में स्थिर करता हूँ ।
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ।। 22 ।।
व्याख्या :- फिर वह भक्त उसी श्रद्धा से युक्त होकर अपने देवता की आराधना करता है और उसी देवता से वह अपनी इच्छानुसार फल भी प्राप्त करता है । लेकिन उस फल को देने वाला कोई और नहीं बल्कि स्वयं मैं ही हूँ अर्थात् भक्त को वह इच्छित फल मेरे द्वारा ही दिया जाता है अन्य किसी के द्वारा नहीं ।
विशेष :- इस श्लोक से यह विदित हो जाता है कि सभी कर्मों का फल देने वाला वह ईश्वर ही है, अन्य कोई नहीं ।
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ।। 23 ।।
व्याख्या :- परन्तु उन अपल्पबुद्धि अथवा मन्दबुद्धि भक्तों को मिलने वाले फल स्थिर नहीं होते अर्थात् वह नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार देवताओं को पूजने वाले भक्त देवताओं को प्राप्त होते हैं और मुझे पूजने वाले भक्त मुझे प्राप्त होते हैं ।
Thank you sir ????????????????????????
Thanku sir ????
Thank you sir
ॐ गुरुदेव!
बहुत बहुत आभार आपका।
Nice sir
Nice explain about god guru ji.