सबसे उत्तम अथवा प्रिय भक्त ( ज्ञानी )

 

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ।। 17 ।।

 

 

व्याख्या :-  इनमें ( चारों प्रकार के भक्तों में ) से जो ज्ञानी भक्त प्रतिदिन निष्काम भाव से युक्त होकर, अनन्य भाव से मेरी भक्ति करता है, वह भक्त अन्य सभी भक्तों से विशिष्ट होता है । ऐसे ज्ञानी भक्त को मैं अत्यन्त प्रिय होता हूँ और वह ज्ञानी भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय होता है ।

 

 

विशेष :-  इस श्लोक में सबसे श्रेष्ठ भक्त के विषय में बताते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो भक्त निष्काम भाव से कर्म करता है और जो अनन्य प्रेमभाव से मेरी भक्ति करता है, वही भक्त सबसे उत्तम होता है । ऐसे भक्त को मैं प्रिय होता हूँ और मुझे वह प्रिय होता है ।

 

परीक्षा में भी इसके सम्बंध में पूछा जा सकता है कि भगवान को कौन सा भक्त सबसे प्रिय होता है ? उत्तर है- ज्ञानी भक्त ।

 

 

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्‌ ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्‌ ।। 18 ।।

 

 

व्याख्या :-  ये सभी भक्त उदार हृदय वाले हैं अर्थात् यह सभी भक्त अच्छे स्वभाव से युक्त हैं, लेकिन जिसने अपना मन व बुद्धि मुझमें ही लगा दिया है और जो योगयुक्त उत्तम गति वाला पूर्ण रूप से मुझमें ही स्थिर हो चुका है, ऐसा ज्ञानी भक्त तो साक्षात मेरा ही स्वरूप है, ऐसा मेरा मानना है ।

 

 

विशेष :-  भगवान श्रीकृष्ण किस भक्त को स्वयं का ही स्वरूप अथवा किस भक्त को स्वयं में स्थित हुआ मानते हैं ? उत्तर है – ज्ञानी भक्त को ।

 

 

 

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ।। 19 ।।

 

 

व्याख्या :-  अनेकों योनियों में जन्म लेने के बाद जब ज्ञानी भक्त ज्ञान के आधार पर इस बात को जान लेता है कि यह सभी चर और अचर अर्थात् इस सम्पूर्ण जगत् में जो भी व्याप्त है, वह सब कुछ वासुदेव ही है । तब वह ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त कर लेता है । ऐसे महात्मा अत्यन्त दुर्लभ हैं अर्थात् ऐसा ज्ञानी महात्मा कोई विरला ही होता है ।

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