आठ प्रकार की अपरा प्रकृति

 

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्‍कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।। 4 ।।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्‌ ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्‌ ।। 5 ।।

 

 

व्याख्या :-  भगवान श्रीकृष्ण अपनी अपरा प्रकृति को बताते हुए कहते हैं – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार के रूप में मेरी आठ प्रकार की जड़ प्रकृति विभाजित है ।

 

हे महाबाहो अर्जुन ! ऊपर वर्णित इस अपरा प्रकृति से भिन्न अर्थात् अलग मेरी चेतन रूपी परा प्रकृति है, जिसने इस सम्पूर्ण जगत को धारण किया हुआ है ।

 

 

विशेष :-  ऊपर के श्लोकों में परा व अपरा प्रकृति के विषय में बताया गया है । यह दोनों ही महत्वपूर्ण श्लोक हैं, जिनके विषय में परीक्षा में भी पूछा जाता है ।

 

भगवान श्रीकृष्ण ने कितने प्रकार की प्रकृति का वर्णन गीता में किया है ? उत्तर है- दो प्रकार की ( अपरा व परा ) ।

 

किस प्रकृति को निम्न अथवा जड़ कहा गया है ? उत्तर है- अपरा प्रकृति को ।

 

अपरा प्रकृति को कितने भागों में विभाजित किया है अथवा कितने भेद बताए गए हैं ? उत्तर है- आठ ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार ) ।

 

किस प्रकृति को उच्च अथवा चेतन माना गया है ? उत्तर है- परा प्रकृति को ।

 

अपरा प्रकृति में जिन आठ भेदों का वर्णन किया गया है, इनमें से पहले के पाँच ( भूमि, जल, अग्नि, वायु व आकाश ) पंच महाभूत होते हैं और शेष तीन ( मन, बुद्धि व अहंकार ) को अंतःकरण के रूप में भी जाना जाता है ।

 

 

प्रकृति का आधार ( ईश्वर )

 

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ।। 6 ।।

 

 

व्याख्या :-  हे अर्जुन ! तुम एक बात को अच्छी प्रकार से धारण करलो अर्थात् अच्छे से समझ लो कि इन दोनों प्रकृतियों ( अपरा व परा ) के कारण ही सभी प्राणियों की उत्पत्ति होती है अर्थात् इस सृष्टि में सभी प्राणियों की उत्पत्ति इन प्रकृतियों के कारण ही हुई है और मैं इस सम्पूर्ण जगत् ( जड़ व चेतन ) की उत्पत्ति और अन्त का मूल कारण मैं ही हूँ अर्थात् मैं ही इस पूरे संसार को बनाता हूँ और मैं ही इसका विनाश करता हूँ ।

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