यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ।। 9 ।।

 

 

व्याख्या :- मोक्ष अथवा मुक्ति के बीच में यह कर्म ( आसक्ति युक्त ) ही बहुत बड़ी बाधा बना हुआ है । जब व्यक्ति कर्म व उसके फल में आसक्ति कर लेता है तो वह कर्म बन्धन पैदा करता है । जिससे वह व्यक्ति कभी भी मोक्ष अथवा मुक्ति को प्राप्त नहीं कर पाता है । इसलिए हे कुन्ती पुत्र अर्जुन ! तुम उन सभी कर्मों से अतिरिक्त यज्ञयीय कर्म अथवा कर्तव्य कर्म करो । यह यज्ञयीय कर्म ही मुक्ति का साधन हैं ।

 

 

विशेष :-  यहाँ पर कर्तव्य कर्म ( निष्काम भाव से युक्त ) को ही यज्ञ कर्म कहा गया है अर्थात् जिन कर्मों में किसी प्रकार की आसक्ति नहीं होती, वही कर्म यज्ञयीय कर्म कहलाते हैं । जब हम नियमित रूप से किये जाने वाले कार्यों को आसक्ति युक्त भाव से करते हैं तो वह बन्धन का कारण बनते हैं । यदि उन्ही कार्यों को हम केवल कर्तव्य कर्म की भावना से करते हैं तो वह कर्म बन्धन का कारण नहीं बनते । यह केवल कर्ता पर निर्भर करता है कि वह कार्य को कर्तव्य अथवा यज्ञ कर्म मानकर करता है अथवा आसक्ति रखकर । जैसे ही कोई कार्य अनासक्त भाव से किया जाता है तो वह मुक्ति का साधन बन जाता है और जैसे ही हमारी कर्म में आसक्ति हो जाती है तो वैसे ही वह मुक्ति में बाधक बन जाती है ।

 

 

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌ ।। 10 ।।

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।। 11 ।।

 

 

व्याख्या :-  सृष्टि के प्रारम्भ में ही ब्रह्मा ने यज्ञ की भावना रखने वाली प्रजा अथवा मनुष्यों की रचना करके, उनको आह्वान किया कि तुम इस कर्तव्य रूपी यज्ञ कर्म को करते हुए उन्नति प्राप्त करो । यह यज्ञकर्म ही तुम्हारी सभी मनोकामनाओं की पूर्ति करेगा ।

 

यज्ञयीय कर्म करते हुए तुम देवताओं को पुष्ट अथवा सशक्त करते रहो और देवता तुम्हें पुष्ट अथवा सशक्त करते रहेंगे । इस प्रकार तुम दोनों ( देवता और मनुष्य ) आपसी सहयोग से एक दूसरे को पुष्ट अथवा सशक्त करते हुए ही परमकल्याण को प्राप्त हो जाओगे ।

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