अर्जुन उवाच :-
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ।। 36 ।।
व्याख्या :- अब अर्जुन प्रश्न करते हुए कहता है :- हे वार्ष्णेय ! ( कृष्ण ) अब मुझे यह बताओ कि मनुष्य न चाहते हुए भी अपनी इच्छा के विरुद्ध, किसकी प्रेरणा से प्रेरित होकर इस पाप कर्म में लग जाता है ?
श्रीभगवानुवाच :-
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ।। 37 ।।
व्याख्या :- भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि रजोगुण से उत्पन्न होने वाले काम व क्रोध ही मनुष्य को प्रेरणा देते हैं । तुम इस लोक में महाभक्षी व महापाप रूपी काम व क्रोध को ही अपना शत्रु समझो ।
विशेष :- यहाँ पर काम शब्द का अर्थ केवल कामवासना अथवा यौन इच्छा ही नहीं है बल्कि सभी सांसारिक सुखों को भोगने की इच्छा को काम कहा गया है ।
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च ।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ।। 38 ।।
व्याख्या :- जैसे प्रकार धुएँ से अग्नि ( आग ), मैल से दर्पण ( शीशा ), व झिल्ली ( जेर ) से गर्भ ढके रहते हैं, वैसे ही इस काम रूपी आवरण से यह ज्ञान अथवा विवेक ढका रहता है ।
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ।। 39 ।।
व्याख्या :- हे अर्जुन ! अग्नि की तरह कभी भी शान्त न होने वाले, ज्ञानी जनों के नित्य शत्रु इस काम से ही मनुष्य का ज्ञान ढका हुआ है ।
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ।। 40 ।।
व्याख्या :- इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि ही इस कामरूपी शत्रु का आश्रय स्थल अथवा निवास स्थान हैं । इनके सहयोग से यह काम रूपी शत्रु मनुष्य के विवेक ( ज्ञान ) को ढककर, उसे अपने वश में कर लेता है ।
ॐ गुरुदेव!
आपका हृदय से आभार।
Thanks sir
Nice guru ji.
Thank you sir