श्रीभगवानुवाच

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌ ।। 3 ।।

 

 

व्याख्या :-  भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि

हे निष्पाप अर्जुन ! इस संसार में दो प्रकार की निष्ठायें होती हैं । जिनका वर्णन मैं पहले ही ( दूसरे अध्याय में ) कर चुका हूँ । इनमें सांख्य- योगियों के लिए ज्ञानयोग व कर्म – योगियों के लिए कर्मयोग नामक निष्ठा होती हैं ।

 

 

विशेष :-  इस श्लोक में निष्ठा शब्द का प्रयोग किया गया है । अब प्रश्न उठता है कि यह निष्ठा क्या होती है ? निष्ठा साधना की उस परिपक्व अवस्था को कहा जाता है, जहाँ पर साधना हमारे आचरण अथवा व्यवहार में शामिल हो जाती है । जब हम किसी कार्य को प्रतिदिन श्रद्धा व विश्वास के साथ करते हैं । तो वह साधना एक प्रकार से निष्ठा बन जाती है ।

 

परीक्षा की दृष्टि से भी यह श्लोक महत्वपूर्ण है । इसके सम्बन्ध में पूछा जा सकता है कि सांख्य योगियों की निष्ठा कौन सी है ? जिसका उत्तर है ज्ञानयोग निष्ठा ।

इसके अलावा यह भी पूछा जा सकता है कि कर्मयोग किनकी निष्ठा है ? अथवा कर्मयोग निष्ठा का उपदेश किसके लिए किया गया है ? जिसका उत्तर है कर्मयोगियों के लिए ।

 

 

 

न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ।। 4 ।।

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌ ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ।। 5 ।।

 

 

व्याख्या :-  यदि मनुष्य कर्मों ( कार्यों ) को प्रारम्भ ( शुरू ) करना बन्द करदे अर्थात् किसी भी प्रकार का कर्म न करे तो भी उसे निष्काम भाव नहीं मिल सकता और यदि वह सभी प्रारम्भ किए हुए कर्मों का त्याग कर देता है । तो कर्म त्याग करने से भी उसे सन्यास अथवा सिद्धि की प्राप्ति नहीं हो सकती ।

 

इस संसार में कोई भी मनुष्य बिना कर्म किये किसी भी समय अर्थात् एक पल के लिए भी नहीं रह सकता । व्यक्ति न चाहते हुए भी प्रकृति के वशीभूत होकर हर पल कुछ न कुछ करता ही रहता है ।

 

 

विशेष :-  इस श्लोक में कहा गया है कि केवल कर्म का त्याग करने मात्र से कभी भी सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती । प्रत्येक मनुष्य प्रतिपल कुछ न कुछ अवश्य ही कर रहा होता है । फिर वह चाहे अपनी इच्छा से कर रहा हो या फिर बिना इच्छा के । कई बार व्यक्ति बिलकुल खाली बैठा होता है तो वह समझता है कि अभी मैं कोई भी कार्य नहीं कर रहा हूँ । लेकिन उस समय भी वह श्वास- प्रश्वास व सोचने आदि कार्यों को बिना इच्छा के कर रहा होता है । यद्यपि वह अपनी इच्छा से कुछ नहीं कर रहा, लेकिन फिर भी प्रकृति के वशीभूत होकर वह बहुत सारे कार्यों का सम्पादन करता ही रहता है । अतः यह सर्वमान्य सत्य है कि व्यक्ति एक पल के लिए भी बिना कर्म किये बिना नहीं रह सकता ।

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