प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।। 27 ।।
व्याख्या :- सम्पूर्ण कार्यों का आधार यह प्रकृति ही है, इसके गुणों ( सत्त्व, रज व तम ) द्वारा ही सभी कार्य सम्पन्न होते हैं, लेकिन कुछ अज्ञानी पुरुष अहंकार से प्रेरित होकर स्वयं को ही कर्ता ( यह कार्य मेरे द्वारा ही किया गया है ) समझने की भूल कर बैठते हैं ।
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ।। 28 ।।
व्याख्या :- परन्तु हे महाबाहो अर्जुन ! जो व्यक्ति प्रकृति के गुण व कर्म के भेद ( अन्तर ) को अच्छी प्रकार से समझता है, वह इस बात को भी अच्छी प्रकार से जानता है कि प्रकृति के गुण ही गुणों पर क्रिया करते हैं । इसलिए वह कभी भी इन गुणों के प्रति आसक्ति का भाव नहीं रखता ।
विशेष :- प्रकृति के गुण व कर्म के भेद को जानने के लिए पहले गुण को और फिर उसके कर्म को समझना होगा । प्रकृति के पञ्च महाभूत होते हैं, जो क्रमशः इस प्रकार हैं – आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथ्वी । इनको गुण कहते हैं । अब इनके कर्म विभाग को भी क्रमशः जानने का प्रयास करते हैं – शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध । यह ऊपर वर्णित गुणों ( आकाश, वायु…. ) के कर्म विभाग कहे जाते हैं । शब्द की उत्पत्ति का आधार आकाश, स्पर्श का वायु, रूप का अग्नि, रस का जल व गन्ध का पृथ्वी माने गए हैं ।
अतः यह गुण ही गुणों पर क्रिया करते रहते हैं, लेकिन हम अज्ञान व अहंकार के वशीभूत होकर स्वयं को कर्ता समझने की भूल कर बैठते हैं, जबकि प्रकृति ही सभी कार्यों आधार है ।
प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ।। 29 ।।
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ।। 30 ।।
व्याख्या :- अज्ञानता से वशीभूत होकर प्रकृति के गुणों में आसक्त हुए मन्दबुद्धि अथवा कम बुद्धि वाले व्यक्तियों को तत्त्वज्ञानी व्यक्ति कहीं किसी प्रकार के सन्देह में डालकर विचलित न कर दे ।
इसलिए हे अर्जुन ! तुम अध्यात्म बुद्धि का आश्रय लेकर इच्छा, ममता व सन्ताप का त्याग करते हुए अपने सभी कर्मों को मुझमें समर्पित करके, चिन्ता मुक्त होकर युद्ध करो ।
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ॐ गुरुदेव!
आपका हृदय से आभार।