सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्‌ ।। 25 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  हे भारत ! ( अर्जुन ) लोक कल्याण की भावना रखने वाले ज्ञानी पुरुषों को भी फल की आसक्ति का त्याग करके, ठीक उसी प्रकार का आचरण अथवा व्यवहार करना चाहिए, जिस प्रकार का आचरण फल में आसक्ति रखने वाले अज्ञानी लोग करते हैं ।

 

 

विशेष :-  इस श्लोक में अज्ञानी लोगों का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है । जिस प्रकार अज्ञानी लोग प्रत्येक कार्य को फल प्राप्ति की इच्छा से करते हैं, ठीक उसी प्रकार ज्ञानी लोगों द्वारा प्रत्येक कार्य को फल की आसक्ति का त्याग करते हुए उतनी ही निष्ठा से करना चाहिए । जितनी निष्ठा से अज्ञानी लोग करते हैं ।

 

जिस प्रकार हम अपने निजी हित के लिए किसी कार्य को पूरी मेहनत व लगन से करते हैं, ठीक उसी मेहनत व लगन से जब हम निजी हित को छोड़कर, लोक कल्याण के लिए कार्य करते हैं । तब वह कर्तव्य कर्म अथवा निष्काम कर्म कहलाता है ।

 

या ये कहें कि जिस प्रकार बुरे व्यक्ति बुरा कार्य करते हुए जितनी तत्परता दिखाते हैं, उतनी ही तत्परता अच्छे व्यक्तियों को अच्छा व लोक कल्याण का कार्य करते हुए दिखानी चाहिए ।

 

 

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम्‌ ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्‌ ।। 26 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  विद्वान अथवा ज्ञानी व्यक्ति को सदा कर्तव्य कर्म का पालन करना चाहिए । उसे कभी भी अज्ञानी व्यक्तियों द्वारा किए जा रहे कर्मों के प्रति किसी प्रकार का भेद उत्पन्न नहीं करना चाहिए अर्थात् उस सकाम कर्म के प्रति कोई भी भ्रम की स्थिति नहीं बनानी चाहिए । बल्कि विद्वान व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने निर्धारित कर्मों को करते हुए, अज्ञानी लोगों को भी निर्धारित कर्म करने के लिए प्रेरित करता रहे ।

 

 

विशेष :-  इस श्लोक का भाव यह है कि विद्वान अथवा ज्ञानी व्यक्ति को चाहिए कि वह दूसरों द्वारा किए जा रहे सकाम कर्मों के प्रति किसी भी प्रकार की विरोध की स्थिति उत्पन्न न करे । बल्कि वह स्वयं अपने निर्धारित कर्मों को पूरी तत्परता से करते हुए अज्ञानी लोगों को भी निर्धारित कर्मों की ओर प्रेरित करे ।

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