कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ।। 20 ।।

 

 

व्याख्या :-  पूर्व समय में राजा जनक आदि अनेक ज्ञानी जनों ने निष्काम भाव से कर्म करते हुए परमगति अथवा परमसिद्धि को प्राप्त किया था । इसलिए लोक कल्याण की भावना का ध्यान रखते हुए कर्म ( आसक्ति रहित ) करना ही हितकारी है ।

 

 

विशेष :-  परीक्षा की दृष्टि से पूछा जा सकता है कि किन राजाओं ने निष्काम भाव का पालन करते हुए परमसिद्धि को प्राप्त किया था ? जिसका उत्तर है जनक आदि राजाओं ने ।

 

 

 

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।। 21 ।।

 

 

व्याख्या :-   श्रेष्ठ अथवा ज्ञानी व्यक्ति जिस प्रकार का आचरण ( व्यवहार ) करते हैं, सामान्य व्यक्ति भी उसी प्रकार का आचरण करते हैं । श्रेष्ठ व्यक्ति जिस बात को प्रमाणिक ( सत्य ) मानता है, सामान्य व्यक्ति भी उस बात को प्रमाणिक मानता है ।

 

 

विशेष :-  इस श्लोक में बहुत ही सुन्दर रूप में आचरण को समझाया गया है, कि किस प्रकार बड़ो द्वारा किया गया व्यवहार छोटों द्वारा अपनाया जाता है । इसे हम कई तरह से समझ सकते हैं । जिस प्रकार हमारे पूर्वज राम व कृष्ण को अपना आदर्श मानते थे, ठीक उसी प्रकार हम भी उनको अपना आदर्श मानते हैं । जिस प्रकार हमारे सन्त छुआछूत, सती प्रथा व बाल विवाह आदि को सामाजिक कुरीति मानते थे, उसी प्रकार हम सब भी इनको सामाजिक कुरीतियों के रूप में देखते हैं । इसके अलावा हमारे पूर्वज जिस भी किसी देवी- देवता की पूजा – अर्चना करते थे, हम भी उसी देवी – देवता को अपना आराध्य देव मानकर उनकी पूजा- अर्चना करते हैं ।

 

इसके पीछे का भाव यही है कि समाज में जो श्रेष्ठ अथवा ज्ञानी लोग होते हैं, हम सभी उनके आचरण को ही अपनाते हैं । यहाँ तक कि हमारे खाने-पीने, ओढ़ने- पहनने व बात करने का ढंग भी वैसा ही होता है, जैसा कि हमारे श्रेष्ठ व्यक्तियों का । उनके प्रति निष्ठा के कारण ही हम सब उनकी कही हुई बातों को प्रमाण के रूप में मानते हैं ।

 

 

 न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ।। 22 ।।

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।। 23 ।।

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्‌ ।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ।। 24 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  हे अर्जुन ! इन तीनों लोकों में कोई भी ऐसी वस्तु अथवा पदार्थ नहीं है जो मेरे पास न हो, अर्थात् इन तीनों लोकों में कोई भी ऐसा कार्य नहीं है जिसे करना मेरे लिए आवश्यक हो, लेकिन फिर भी मैं निरन्तर कार्य करने में लीन अथवा लगा रहता हूँ ।

 

हे पार्थ ! मैं ऐसा इसलिए करता हूँ क्योंकि यदि मैं आलस्य का त्याग करके कर्म नहीं करूँगा, तो बाकी सभी लोग भी मेरे इस आचरण का पालन करते हुए कर्म का त्याग कर देंगे अर्थात् कर्महीन बन जायेंगे ।

 

इस प्रकार यदि मैं कर्म नहीं करूँगा तो बाकी सभी लोग भी कर्म का त्याग करके अकर्मण्य बन जायेंगे, जिससे वह शीघ्र ही विनाश को प्राप्त हो जायेंगे । ऐसे निश्चित अथवा निर्धारित कर्मों को नष्ट करने से तो मैं स्वयं ही समस्त मानव जाति का विनाशक बन जाऊँगा । इसलिए हे अर्जुन ! सभी प्रकार का ज्ञान प्राप्त हो जाने पर भी ज्ञानी मनुष्यों को, मानव जाति की भलाई हेतु कर्तव्य कर्म का पालन करना परम आवश्यक है ।

 

 

विशेष :-  उपर्युक्त श्लोकों का सार यही है कि हमें सदा कर्तव्य कर्म का पालन करना चाहिए । ऐसा करने से हम स्वयं भी अकर्मण्यता से बचेंगे और आने वाली पीढ़ियों को भी बचा पायेंगे । इसके विपरीत यदि हम अकर्मण्यता को अपनायेंगे, तो हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भी इसी भाव का पालन करते हुए एक दिन स्वयं ही नष्ट हो जायेंगी । अतः हमें कर्मयोगी बनना चाहिए ।

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  1. Prnam Aacharya ji … Bhut hi sunder shlok hai aur vyakhya v bhut hi sunder ki gyi hai ….. Bhut bhut dhanyvad…

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