एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ।। 16 ।।

 

 

व्याख्या :-  हे पार्थ ! जो मनुष्य इस सृष्टि के कर्म चक्र के अनुसार नहीं चलता अथवा इस कर्म चक्र को विधिवत रूप से आगे नहीं बढ़ाता है, बल्कि स्वयं ही सभी भोगों को भोगता रहता है, ऐसे मनुष्य को पापी कहा गया है । उसका जीवन व्यर्थ होता है, वह इस पृथ्वी पर भार ( बोझ ) के समान होता है ।

 

 

 

 यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ।। 17 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  परन्तु जो मनुष्य केवल आत्मा में ही लीन है, आत्मा में ही तृप्त है और आत्मा में ही पूर्ण रूप से संतुष्ट रहता है, उसके लिए कोई कर्तव्य कर्म शेष नहीं बचता अर्थात् उसके सभी कार्य स्वयं ही सिद्ध हो जाते हैं । उनके लिए उसे कोई अलग से प्रयास नहीं करना पड़ता ।

 

 

 

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ।। 18 ।।

 

 

व्याख्या :-   ऐसे योगी पुरुष को किसी भी प्रकार के कर्म को करने अर्थात् कर्म की प्रवृत्ति में और किसी भी कर्म को न करने अर्थात् कर्म की निवृत्ति से कोई भी कार्य सिद्ध नहीं करना पड़ता । इसके अलावा उसे किसी भी प्रकार की इच्छा को पूरी करने के लिए भूतों ( प्रकृति के घटक ) पर भी आश्रित नहीं रहना पड़ता, क्योंकि उसमें आसक्ति से रहित केवल निर्धारित अथवा निश्चित कर्तव्य कर्म को करने की ही भावना होती है ।

 

 

 

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ।। 19 ।।

 

 

व्याख्या :-  इसलिए हे अर्जुन ! तुम निर्धारित अथवा निश्चित कर्तव्य कर्म को निरन्तरता व आसक्ति भाव से रहित होकर, अच्छी प्रकार से करते रहो, क्योंकि कर्तव्य कर्म को आसक्ति रहित होकर करने से ही उस परमसुख अथवा परमगति की प्राप्ति होती है ।

 

 

विशेष :- जब भी हम किसी कार्य को कर्तव्य कर्म समझकर करते हैं, तो उसमें अनासक्त भाव पैदा हो जाता है, जिससे उस कार्य के प्रति हमारी आसक्ति अथवा लगाव नहीं रहता । इस अनासक्त भाव के उत्पन्न होने से ही हमें उस परमसुख की प्राप्ति होती है । हम इसे एक उदाहरण द्वारा समझने का प्रयास करते हैं :-

 

जिस प्रकार बैंक में पैसों का लेनदेन करने वाला कोषाध्यक्ष ( खजांची अथवा कैशियर ) दिनभर लोगों से पैसे लेता व देता रहता है । उसकी उस लेनदेन में किसी प्रकार की कोई आसक्ति नहीं होती, न ही तो उसे पैसों के जमा होने पर कोई प्रसन्नता होती है और न ही पैसों के निकाले जाने पर कोई दुःख होता है । जिस प्रकार वह खजांची उन पैसों के निकलने व जमा होने पर समभाव रखता है, ठीक वैसे ही जब कोई व्यक्ति प्रत्येक कार्य को आसक्ति रहित होकर, समभाव से युक्त होकर करता है, तब वह निर्धारित अथवा कर्तव्य कर्म कहलाता है ।

Related Posts

April 29, 2019

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ । पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्‌ ।। 41 ।।     व्याख्या ...

Read More

April 29, 2019

अर्जुन उवाच :-   अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः । अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव ...

Read More

April 29, 2019

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।। 35 ।।     ...

Read More

April 29, 2019

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः । श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः ।। 31 ।। ये ...

Read More
Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked

{"email":"Email address invalid","url":"Website address invalid","required":"Required field missing"}